Ruby Arun

Monday 18 June 2012

उत्तराखंड : खंडूरी हारे, फिर भी कांग्रेस नहीं जीती.............रूबी अरुण


उत्तराखंड : खंडूरी हारे, फिर भी कांग्रेस नहीं जीती


जीतकर भी हारना क्या होता है, अगर आपको यह जानना है तो उत्तराखंड से बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता. कमज़ोर नेतृत्व और आलाकमान में दूरदर्शिता की कमी क्या होती है, उत्तराखंड इसका भी नमूना पेश करता है. जिस राज्य में कांग्रेस की हवा बन चुकी थी, जहां की जनता कांग्रेस के हाथ राजपाट सौंपने का मन बना चुकी थी. उस राज्य में सरकार बनाने की खातिर कांग्रेस के पसीने छूट गए. कांग्रेस को अपने तीन बाग़ी नेताओं को उनकी शर्तों पर मनाना पड़ा. उनके आगे ग़िडग़िडाना पड़ा. जिस राज्य में विपक्षी पार्टी भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बीसी खंडूरी की करारी हार हुई हो और उत्तराखंड में खंडूरी है ज़रूरी का नारा भी भाजपा को नहीं बचा सका हो. वहां फिर भी कांग्रेस के पास इतनी सीटें न आ पाईं कि वह अपनी सरकार बग़ैर किसी मश़क्क़त या जोड़-तोड़ के बना सके, तो भला इससे बड़ी नीतिगत खामी किसी भी राजनीतिक पार्टी में और क्या हो सकती है.
कांग्रेस के आला नेता इस बात से अनजान नहीं थे कि पिछली बार भी प्रदेश में उसे शिकस्त इसलिए खानी पड़ी, क्योंकि उसने समय रहते वहां मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम की घोषणा नहीं की थी. इस बार भी सबसे बड़ा कारण यही रहा. यह बात सोनिया गांधी भी जानती थीं और राहुल गांधी भी कि राज्य के लोग हरीश रावत को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं, क्योंकि हरीश रावत का सबसे मज़बूत पक्ष उनका बड़ा जनाधार है, जो पूरे उत्तराखंड में फैला हुआ है. इसके बावजूद कांग्रेस ने इस हक़ीक़त की अनदेखी की और हरीश रावत के नाम की घोषणा कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नहीं की. इसका खामियाज़ा कांग्रेस को भुगतना प़डा. भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, आपसी फूट, भीतरघात जैसी संगीनियों से जूझती भारतीय जनता पार्टी भी इतनी सीटें ले आई कि कांग्रेस के लिए सरकार बनाने की दावेदारी पेश करना मुश्किल हो गया. राज्य की कुल 70 सीटों में से कांग्रेस ने 32 सीटें जीतीं, जो बहुमत के जादुई आंकड़े से चार कम थीं, तो भाजपा को 31 सीटें मिल गईं.
उत्तराखंड में पारंपरिक तौर पर ब्राह्मण और ठाकुर मतों का धुव्रीकरण होता आया है. हरीश रावत भी इससे बच न सके. हालांकि उन्होंने अपनी कट्टर ठाकुरवादी छवि से छुटकारा पाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन अभी भी उत्तराखंड में ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा उनकी इस छवि को न भुला पाने के चलते कांग्रेस को वोट देने से परहेज़ करता है. इसके बावजूद रावत जनप्रिय नेता हैं और उन्होंने अकेले अपने दम पर कांग्रेस को उत्तराखंड में मज़बूत किया. इस तथ्य को उनके विरोधी भी स्वीकारते हैं. भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी की तरह ही हरीश रावत का प्रभाव क्षेत्र भी राज्य के  ज़िलों में समान रूप से है. हरिद्वार से संसद की सीट भारी मतों से जीतकर रावत ने इसे प्रमाणित भी कर दिया है. इसके अलावा मुस्लिम समाज में भी उनकी खासी पैठ है और ट्रेड यूनियन से लंबा जुड़ाव उन्हें श्रमजीवी एवं नौकरीपेशा वर्ग में भी लोकप्रिय बनाता है. अल्मोड़ा सीट से तीन बार सांसद रह चुके रावत पांच बार लगातार चुनाव हारे, लेकिन मतदाताओं पर उनकी मज़बूत पकड़ बनी रही. 2002 में राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में कांग्रेस को बहुमत दिलाने का श्रेय भी रावत को ही जाता है. उस समय भी विधायक दल का पूरा समर्थन होने के बावजूद रावत के दावे को नज़र अंदाज़ कर, एनडी तिवारी को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस आलाकमान ने संगठन को दो फाड़ की स्थिति में ला खड़ा किया था. हालांकि मामले की गंभीरता देखते हुए हरीश रावत ने दूरदर्शिता का परिचय दिया और सरकार का गठन होने दिया, लेकिन उसके बाद उन पर यह भी आरोप लगते रहे कि पूरे पांच साल हरीश रावत ने एनडी सरकार की राह में कांटे बोये. रावत के समर्थक विधायकों ने एनडी सरकार के सामने हर रोज नई चुनौती खड़ी की और वह अपनी ही सरकार के खिला़फ काम करते नज़र आए, जिसका नतीजा यह रहा कि एनडी तिवारी ने हरीश रावत के  कई कट्टर समर्थकों को अपनी तऱफ मिला लिया और रावत को कमज़ोर करने का भी काम किया. एनडी तिवारी ने हरीश रावत के कई क़रीबी लोगों के मन में मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश जगा दी. यह एनडी तिवारी की ही माया है कि इस विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश कांग्रेस में तक़रीबन आधे दर्जन नेता ऐसे थे, जो मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे. चूंकि वे दावेदार नेता नाराज़ न हो जाएं या फिर बाग़ी होकर पार्टी का नुक़सान न कर दें. इस दर से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी प्रदेश में पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री के प्रत्याशी का नाम घोषित नहीं कर पाईं, जबकि केंद्रीय नेतृत्व को यह अच्छी तरह पता था कि तमाम महत्वाकांक्षी नेताओं और विरोधियों के बावजूद मौजूदा वक़्त में हरीश रावत ही सबसे मज़बूत जनाधार वाले नेता हैं और सोनिया गांधी का यही डर प्रदेश में कांग्रेस के लिए मुश्किलों का सबब बन गया.
आज भी ऐसा नहीं है कि हरीश रावत की राह आसान है, पर कभी उनकी घोर विरोधी और रावत विरोधियों की संरक्षणदाता इंदिरा हृदयेश भी बदले राजनीतिक परिदृश्य में रावत के साथ हो गई हैं. लेकिन इससे रावत की मुसीबतें कम नहीं हुई हैं. अभी भी यशपाल आर्या को आगे करके रावत विरोधी गुट उन्हें कड़ी टक्कर देने की फ़िराक में है. वैसे चुनाव के पहले और परिणाम आने तथा सरकार बनाने तक हरीश रावत सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत आर्या के कंधे पर बंदूक़ रखकर निशाना साध रहे हैं, क्योंकि यशपाल दलित हैं, इसलिए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को वह सुहाते भी हैं. यही वजह रही कि सोनिया गांधी ने उत्तराखंड में दलित वोटरों के कम संख्या में होने के बावजूद यशपाल को कभी भी किनारे नहीं किया और उत्तराखंड के मतदाताओं में यह संदेश जाने दिया कि कांग्रेस यशपाल को भी मुख्यमंत्री बना सकती है. हालांकि कांग्रेस को अपनी इस लुका-छिपी से कोई फायदा तो हुआ नहीं, बल्कि असंतुष्टों के क्षोभ का सामना ही करना पड़ा. सत्ता हासिल हो जाने के बाद भी हरीश इस खतरे को खूब समझते हैं और फिलहाल वह डिफेंसिव मूड में दिख रहे हैं, क्योंकि वह इस बात से खूब वाक़ि़फ हैं कि किसी भी तरह यह सरकार बन तो गई, पर राह में अभी भी कांटे हैं, लिहाज़ा पहले की ग़लतियों से सबक़ लेकर संभल-संभल कर चलने की ज़रूरत है.

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