बिहार में नई सियासी नौटंकी |
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ज़र-खरीद ग़ुलामों की तरह बिहार के पत्रकारों की क़लम पर, उनकी अभिव्यक्ति पर, नीतीश कुमार की तालिबानी नज़र रहती है. आपने एक ह़र्फ भी उनके ख़िला़फ लिखा नहीं कि आपकी रोज़ी-रोटी गई. तो फिर अख़बार वालों ने यह ख़बर छापने की हिम्मत कैसे कर दिखाई. कहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही तो नहीं चाहते कि इस तरह की बातें हवा में उड़ती रहें और जिस भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव में उनसे अलग होकर चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी को उनके मना करने के बावजूद एक हीरो की तरह पेश करके मुख़ाल़फत के तेवर दिखाने में कोताही नहीं की, वह कम से कम बिहार में उनके दबाव में आकर साथ बनी रहे, ताकि उनकी राजनीति की दुकान यूं ही चलती रहे.
ज़र-खरीद ग़ुलामों की तरह बिहार के पत्रकारों की क़लम पर, उनकी अभिव्यक्ति पर, नीतीश कुमार की तालिबानी नज़र रहती है. आपने एक ह़र्फ भी उनके ख़िला़फ लिखा नहीं कि आपकी रोज़ी-रोटी गई. तो फिर अख़बार वालों ने यह ख़बर छापने की हिम्मत कैसे कर दिखाई. कहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही तो नहीं चाहते कि इस तरह की बातें हवा में उड़ती रहें और जिस भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव में उनसे अलग होकर चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी को उनके मना करने के बावजूद एक हीरो की तरह पेश करके मुख़ाल़फत के तेवर दिखाने में कोताही नहीं की, वह कम से कम बिहार में उनके दबाव में आकर साथ बनी रहे, ताकि उनकी राजनीति की दुकान यूं ही चलती रहे. लेकिन नीतीश कुमार इस बात से भी ख़ूब वाक़ि़फ होंगे कि इस तरह फाख्ता उड़ाने का अंजाम क्या होता है. ज़ाहिर है, नीतीश की चाल ने उनके ही ख़िला़फ माहौल तैयार करना शुरू कर दिया है. चौथी दुनिया बिहार की जो राजनीतिक तस्वीर आपके सामने रखने जा रहा है, वह शक्ल अख्तियार कर ही ले, यह ज़रूरी नहीं, पर इससे बिहार के राजनीतिक और सामाजिक हालात पर फर्क़ ज़रूर पड़ेगा. हमारे पास बिहार की सियासत में खासा द़खल रखने वाले जद-यू और भाजपा नेताओं की ही मार्फ़त जो ख़बरें आ रहीं हैं, उनसे यह बात साफ़ तौर पर उभर कर सामने आ रही है कि भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, शाहनवाज़ हुसैन और सुशील मोदी लगातार राजद प्रमुख लालू यादव के संपर्क में हैं. उनसे विचार-विमर्श और मान-मनुहार का दौर भी चल रहा है, जिसे नीतीश कुमार के ख़िला़फ मानकर देखा जा रहा है. लालू यादव की बेटी रागिनी की शादी में महरौली फार्म हाउस में भाजपा के ऊपर से लेकर नीचे तक के नेताओं का सपरिवार जमावड़ा भी कुछ अलग इशारे कर रहा है.
दरअसल राजनीतिक विश्लेषक भी तभी से इस बात का क़यास लगाने में लगे हैं कि बिहार की राजनीति में कोई नया गुल खिल सकता है. क्या बिहार में जदयू-भाजपा की सरकार का तालमेल बिगड़ सकता है? क्या नीतीश कुमार की कुर्सी ख़तरे में है? क्या अगले विधानसभा चुनाव से पहले ही राजद प्रमुख लालू यादव की बिहार की सत्ता में भागीदारी हो सकती है? तमाम सवाल मंडरा रहे हैं और उन सवालों की बिना पर एक नया-अलहदा क़िस्म का समीकरण भी पेश किया जा रहा है. दलीलों और तर्कों से परे इस समीकरण में कुर्सी पर क़ाबिज़ होने की लालसा ही सबसे प्रबल है. इन अंदाज़ों का दौर शुरू हुआ, राजद प्रमुख लालू यादव की बेटी की दिल्ली में शादी होने के बाद ही. यह बात मामूली नहीं है कि लालू यादव की बेटी रागिनी की शादी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने शिरकत करना मुनासिब नहीं समझा, जबकि ये सभी उस दिन दिल्ली में मौजूद थे. कहते हैं कि लालू यादव उनके इस आचरण से बेहद आहत हैं. कांग्रेस ने राष्ट्रीय राजनीति में पहले से ही लालू से किनारा कर रखा है. पिछले दिनों लालू की हरचंद कोशिश रही कि वह कांग्रेस हाईकमान का भरोसा एक बार फिर से हासिल कर केंद्र में एक मज़बूत जगह बना सकें. संभावनाएं दिखने भी लगी थीं. ख़ासकर लोकसभा में जन लोकपाल बिल पेश करने के मसले पर बहस होते समय लालू यादव की कांग्रेस के पक्ष में वाचालता के बाद, लेकिन फिर उत्तर प्रदेश चुनाव ने सारे समीकरण बिगाड़ दिए. मुलायम सिंह का कांग्रेस से समझौता और ख़ुद को देश के उप प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करना लालू यादव को अखर गया. उधर अपनी हर लड़ाई हार चुके लालकृष्ण आडवाणी को भी यह डर शिद्दत से सताने लगा कि उनकी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश महज़ एक ख्वाब न बनकर रह जाए. नीतीश-आडवाणी और लालू के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग जो इस नई दंत कथा के सूत्रधार हैं, उनके अंदाज़ों की ज़रा उड़ान देखिए और आप भी जोड़-तोड़ के इस सियासी गणित को समझने की कोशिश कीजिए.
इन सूत्रधारों के मुताबिक़, भाजपा की कार्यकारिणी बैठक एवं स्वाभिमान रैली के दौरान एक विज्ञापन को लेकर नीतीश-नरेंद्र मोदी विवाद वाला जो दृश्य बना, अब वह अपने क्लाईमेक्स की ओर बढ़ रहा है, जिसके नतीजे में नीतीश को अपनी कुर्सी भी गंवानी पड़ सकती है. इस सियासी नौटंकी के अखाड़े में कब कौन सा अप्रत्याशित दृश्य जनता के सामने उपस्थित हो जाए, कब कौन सा सियासी किरदार कौन सा रूप धारण कर ले और क्या संवाद दोहराने लगे, कहना मुश्किल है. एक नज़र डालिए इनकी परिकल्पनाओं पर, जिनके बारे में इन सूत्रधारों का यह दावा है कि आडवाणी जी की लालू यादव जी से डील पक्की हो चुकी है, बस मौक़े का इंतज़ार है और नीतीश की बादशाहत ख़त्म. हम फिर कह रहे हैं कि यह पूरी कहानी नीतीश कुमार, आडवाणी और लालू यादव के बेहद क़रीबियों की ज़ुबानी है, बस आपको सुनाने-बताने का ज़रिया हम बन गए हैं. तो मुलाहिज़ा फरमाएं आप भी. इन नेताओं के मुताबिक़, आडवाणी जी ने लालू यादव से यह कहा है कि आप बिहार में हमारा साथ दीजिए, ताकि वहां जद-यू और राजद मिलकर सरकार बना सकें और केंद्र पर भी हम दोनों धावा बोल सकें. लालू जी आप उप प्रधानमंत्री बन जाएं और प्रधानमंत्री की कुर्सी भाजपा के ज़िम्मे सौंप दें, ताकि हम अपनी चिर अभिलाषा पूरी कर सकें और प्रधानमंत्री बन सकें. बिहार में सुशील कुमार मोदी मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल लें और उप मुख्यमंत्री की कुर्सी राजद के खाते में चली जाए. राजद के 11 विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया जाए और बाक़ी कुर्सियों पर भाजपा का क़ब्ज़ा रहे.
अगर वाक़ई ऐसी बात है, जो कही जा रही है, तो जो आंकड़े हैं, उनके पास विधायकों के और बहुमत के लिए जितने नंबर चाहिए, वे भाजपा और राजद के पास मौजूद हैं. बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 122 विधायकों की ज़रूरत है. भाजपा और उसके साथ मर्ज़ कर गए विधायकों की कुल संख्या 102 है. लालू यादव के पास 22 विधायक हैं और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के पास एक विधायक है. इस तरह इनके पास कुल संख्या 125 हो रही है, जो सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है. जबकि जद-यू के पास महज़ 114 विधायक ही बचेंगे, जो बहुमत से बहुत कम हैं. लिहाज़ा उसके लिए मुश्किलें हो सकती हैं. मतलब यह कि फिलहाल हवाई ही सही, भाजपा और राजद गठबंधन की सरकार बनती नज़र आ रही है. दूसरा शगू़फा यह भी है कि कांग्रेस से मुलायम की डील के बाद उनका नाम उप प्रधानमंत्री के तौर पर उछलने से लालू यादव विचलित से हो गए हैं. उन्हें लगता है कि जब वह देश के सबसे बड़े और स्थापित यादव नेता हैं तो मुलायम इसका फायदा उठाकर उनकी हक़मारी कैसे कर सकते हैं. प्रधानमंत्री न सही, पर उप प्रधानमंत्री के पद पर तो उन्हीं का दावा बनता है. मिली सूचना के मुताबिक़, आडवाणी ने उनसे यह चर्चा भी की है कि कांग्रेस से नाराज़ ममता दीदी को भी अपने साथ मिला लेंगे, जिससे हमारी राह आसान हो जाएगी. लेकिन इन आसमानी कल्पनाओं को अमलीजामा पहनाने में जुटे सूत्रधारों के सामने कई ज़मीनी अड़चनें आ सकती हैं. मसलन, क्या लगातार नीचे जा रहे ग्राफ के बाद भी भाजपा इतना बड़ा जोखिम लेने की हालत में है. उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या लालू यादव भाजपा से हाथ मिलाकर अपने माई समीकरण को मटियामेट कर सकते हैं, वह अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि से समझौता कर सकते हैं? नहीं कर सकते. फिर ऐसे में क्या यह डील ज़मीनी शक्ल अख्तियार कर सकती है?
हालांकि यह बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि नीतीश कुमार की तानाशाही से न स़िर्फ भाजपा, बल्कि जद-यू के मंत्री एवं नेता भी बेहद आहत और नाराज़ हैं. ज़्यादातर नेता मजबूरी में उनके साथ है, न कि उनकी फरमाबरदारी में. अब तो बिहार की जनता भी उनके दोहरे चरित्र से वाक़ि़फ हो चुकी है. एक तऱफ लुधियाना की सभा में नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के हाथ में हाथ डालकर लंबी-चौड़ी मुस्कुराहट के साथ फोटो खिंचवाते हैं तो दूसरी तऱफ बिहार में नरेंद्र मोदी का नाम लेने से भी ऐसे बिदकते हैं, जैसे किसी भूत का नाम ले लिया हो. जिस पार्टी के गठबंधन से उनकी सरकार लगातार दूसरी बार चल रही है, क्या नीतीश कुमार नहीं जानते कि नरेंद्र मोदी उसी पार्टी के बेहद मज़बूत और राष्ट्रीय नेता हैं. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में चुनाव की बारी आती है तो नीतीश नरेंद्र मोदी के नाम पर वहां भाजपा से कन्नी काट जाते हैं. मुसलमान मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए नीतीश रोज़ नए ड्रामे रच रहे हैं. क्या नीतीश को पहले यह नहीं पता था कि नरेंद्र मोदी की छवि सांप्रदायिक नेता की है? नीतीश की ये हरकतें जितनी हास्यास्पद हैं, उतनी ही उनकी समझ पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वाली भी. दरअसल, अभी नीतीश के सामने बिहार विधान परिषद और राज्यसभा के सदस्यों के चुनाव का मसला है. ज़ाहिर है, नीतीश के सामने उलझने हैं, पर क्या अपने ही ख़िला़फ छुटभैये नेताओं से अ़फवाहों को हवा दिलाकर नीतीश आने वाली मुश्किलें हल कर लेंगे या उनका यह दांव उनके लिए मुसीबतों का सबब बन जाएगा? आइए, इंतज़ार करते हैं.
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