Ruby Arun

Monday 18 June 2012

प्रधानमंत्री नहीं जानते, देश में कितने बेरोजगार...रूबी अरुण




प्रधानमंत्री नहीं जानते, देश में कितने बेरोजगार!

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार रोजगार के नाम पर देश के नौजवानों के साथ धोखा कर रही है. रोजगार के नाम पर नई-नई योजनाओं का मजमा लगाए बैठी यूपीए सरकार को यह पता ही नहीं कि देश में बेरोजगारों की संख्या कितनी है. महंगाई रोक पाने में बुरी तरह विफल सरकार नहीं चाहती कि देश के युवाओं को रोजगार मिले, देश से बेरोज़गारी की महामारी खत्म हो. सरकार की नीयत ही नहीं है कि हर नौजवान को काम मिले और देश से भूख और ग़रीबी का ख़ात्मा हो. रोजगार के अवसर पैदा करने के नाम पर सरकार आंकड़ों का घालमेल करके पूरे देश की आंखों में धूल झोंक रही है. दरअसल सरकार ऐसा चाहती भी नहीं कि वह इस बात की जानकारी हासिल करे या फिर इसका रिकॉर्ड रखे, क्योंकि अगर सरकार ने ऐसा किया तो उसके रोज़गार संबंधी दावों की पोल खुल जाएगी. सरकार के उस झूठ की कलई उतर जाएगी, जिसके तहत वह यह दावा करते नहीं अघाती कि देश में रोज़गार का ज़्यादा से ज़्यादा सृजन करना ही उसकी सबसे महत्वाकांक्षी योजना है. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही देश के युवाओं को रिझाने-बहलाने की हर जुगत करें, बड़े-बड़े लुभावने वादे और दावे करें, रोज़गार गारंटी योजना की शान में कसीदे पढ़ें, पर उनकी ही सरकार उनके तमाम दावों में पलीता लगा रही है.
कांग्रेस नीत सरकार की धोखाधड़ी समझने के लिए इससे बड़ा उदाहरण तो हो ही नहीं सकता. देश के नौजवानों के दुर्भाग्य की यह कहानी तब है, जबकि देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों ही मूर्धन्य अर्थशास्त्री हैं. और, देश के भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखे जाने वाले राहुल गांधी यह कहते नहीं थकते कि उनकी सरकार की प्राथमिकता ही है सत्ता और समाज में ग़रीबों की न्यायपूर्ण भागीदारी. पर हक़ीकत यह है कि सत्ता में हिस्सेदारी-भागीदारी की बात तो बहुत  दूर, यहां ग़रीबों के निवाले तक से सियासत की जा रही है.
राज्यसभा में जब श्रम और रोज़गार राज्यमंत्री हरीश रावत से सवाल किया जाता है कि देश में बेरोजगारों की मौज़ूदा संख्या कितनी है तो वह एकबारगी कुछ बोल नहीं पाते. बाद में उनका लिखित जवाब आता है, जिसमें कहा जाता है कि सरकार के पास बेरोज़गारों के ताज़े आंकड़े हैं ही नहीं, जो जानकारी दी जाती है, वह वर्ष 2004-05 की होती है. उसके मुताबिक़, 2004-05 में देश में 10.84 करोड़ बेरोजगार थे. जाहिर है, जिस तेज़ी से आबादी और महंगाई बढ़ी है और मंदी का विकट दौर गुजरा है, उसमें देश में बेरोजगारों की तादाद दोगुनी से भी ज़्यादा हो चुकी है. मनमोहन सिंह सरकार की कथनी और करनी का फर्क़ देखिए कि दूसरी तऱफ वह यह बयान भी देती है कि देश में रोज़गार तलाशने वालों की संख्या पिछले दस सालों में औसतन 56.67 लाख प्रति वर्ष की दर से बढ़ी है. वर्ष 2009 में 56.69 लाख बेरोजगारों ने रोजगार कार्यालयों में पंजीकरण कराया है, पर सरकार ने कितने बेरोज़गार नौजवानों को रोजगार दिया, इसकी फेहरिस्त सरकार के पास मौज़ूद नहीं. दिखावे के तौर पर सरकार ने यह ज़रूर किया कि हर हाथ को रोजगार देने के नाम पर तमाम योजनाओं का शुभारंभ कर दिया, ताकि लोग-बाग इस भ्रम में जीते रहें कि सरकार उनकी रोज़ी-रोटी के लिए हर चंद कोशिशें कर रही है. और, इस मुगालते की आड़ में कांग्रेस का वोट बैंक बरक़रार रहे. वैसे काग़ज़ी तौर पर सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य के रूप में सामान्य विकास प्रक्रिया के माध्यम से युवाओं, पुरुषों और महिलाओं के लिए विभिन्न रोज़गार कार्यक्रमों को लागू करके दैनिक आधार बनाकर 5 करोड़ 80 लाख रोजगार अवसरों के सृजन का मक़सद रखा. इसे पूरा करने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना, स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार गारंटी योजना और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, पर देश के बेरोजगारों के प्रति सरकार की बदनीयती ने इन सारी योजनाओं का सत्यानाश कर दिया है.
वित्तमंत्री प्रणब मुखर्ज़ी भी हैरान हैं. उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा है कि देश के बेरोज़गारों को रोजगार देने के लिए बड़े ज़ोर-शोर से शुरू की गई स्वर्ण जयंती योजना का हाल इतना बुरा है कि वह युवाओं को रोज़गार देने की बजाय लूट-खसोट का ज़रिया बन गई है. सरकार की इतनी महत्वाकांक्षी योजना भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के चलते धूल में मिल रही है और इसकी ख़बर तक हमारे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी को नहीं. हाल में जब प्रणब मुखर्जी के पास इस सिलसिले में बेशुमार शिकायतें आईं, तब उन्होंने इस पूरी योजना के क्रियान्वयन और नतीज़ों की समीक्षा की, तो वह भी भौंचक रह गए. उनकी ज़ुबान से बेसाख्ता यह निकला कि यह पूरा मामला वाकई बहुत गड़बड़ है और योजना अपने लक्ष्य से बिल्कुल ही भटक चुकी है. प्रणब मुखर्जी ने माना कि स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार गारंटी योजना यानी एसजीएसवाई को लेकर बैंकों एवं अन्य सरकारी एजेंसियों में समन्वय का घोर अभाव है और इस योजना को लागू करने के लिए सरकार द्वारा बैंकों को दी जा रही सब्सिडी का भी ग़लत इस्तेमाल हो रहा है. इस योजना को शुरू करने के पीछे सरकार का मक़सद था कि गांवों के ग़रीब सामूहिक रूप से क़र्ज़ लेकर खुद का व्यवसाय खड़ा करेंगे. बैंक उन्हें कम ब्याज दरों पर क़र्ज़ देंगे और संबंधित व्यवसाय का प्रशिक्षण भी. अव्वल तो अशिक्षा की वज़ह से ग्रामीणों को क़र्ज़ ही नहीं मिले. बैंकों ने सरकारी लक्ष्य के मुताबिक़ क़र्ज़ ही नहीं दिया. और, अगर दिया भी तो वहां सरकारी लालफीताशाही पूरी तरह हावी रही. जैसे-तैसे बैंकों ने ग़रीबों को क़र्ज़ तो दे दिया, पर उन्हें प्रशिक्षित करने की दिशा में कोई क़दम उठाना ज़रूरी नहीं समझा. लिहाज़ा जिन लोगों ने क़र्ज़ लिया, उन्होंने मदद न मिलने की स्थिति में अपना व्यवसाय ही बदल दिया. इस बात के गवाह सरकारी आंकड़े भी हैं. एसजीएसवाई के तहत वित्तीय मदद के लिए जितने भी प्रस्ताव पास किए जाते हैं, उनमें से अधिकतर पर कोई कार्रवाई ही नहीं की जाती. स्वर्ण जयंती शहरी रोज़गार गारंटी योजना के तहत गांवों में कुछ व्यक्तियों को मिलाकर एक स्वयं सहायता समूह बनाया जाता है. फिर इन समूहों को छोटा-मोटा रोजगार करने के लिए बैंकों या गैर सरकारी संगठनों से वित्तीय मदद दी जाती है. इसमें जितना खर्च आता है, उसका 30 फीसदी बतौर सब्सिडी केंद्र सरकार देती है. वर्ष 2008-09 में एसजीएसवाई के लिए सरकारी और निजी बैंकों को 1922 करोड़ रुपये देने का लक्ष्य रखा गया था, पर वितरित हुए केवल 1282.73 करोड़ रुपये. सरकारी आंकड़ों पर अगर नज़र दौड़ाएं तो वर्ष 2009-10 में बैंकों ने कुल 35 हज़ार 878 समूहों को क़र्ज़ देने के प्रस्ताव स्वीकृत किए, लेकिन 28 हज़ार 408 समूहों ने बाद में पैसा लिया ही नहीं. 2008-09 में 25 हज़ार 507 समूहों को मंज़ूरी मिली, लेकिन स़िर्फ 14 हज़ार 370 समूहों ने ही क़र्ज़ की राशि ली. बाकी रक़म का इस्तेमाल कहां हुआ, वह सरकार के खाते में वापस आई या फिर घोटालों की नई इबारत लिख दी गई, इसकी जानकारी भी सरकार के पास मौज़ूद नहीं है. जाहिर है, सरकार लगातार झूठ बोल रही है. ग़लत आंकड़ों के आधार पर भारत के विकसित होने का ढोल पीट रही है. सरकार जिस पंचवर्षीय योजना की डफली बार-बार बजाती है, उसके आंकड़ों में भी बाज़ीगरी दिखाई गई है. इसमें जिस 5 करोड़ 80 लाख रोजगार के पैदा करने की बात कही गई है, उसकी गणना अगर छह साल पुराने बेरोज़गारी के आंकड़ों से की जाए तो भी एक आदमी को पांच दिन से कुछ घंटे ज़्यादा ही रोज़गार मिलेगा, जबकि सरकार यह दावा करती है कि वह साल में 100 दिन रोज़गार दे रही है. जितनी भी रोज़गारपरक योजनाएं सरकार के बस्ते में हैं, उन सभी में कम से कम 100 दिन रोज़गार देने का नियम रखा गया है. छह साल पहले के बेरोज़गारी के आंकड़ों को ध्यान में रखें तो भी 100 दिन के हिसाब से 11 मिलियन बेरोज़गारों के लिए 1100 मिलियन रोज़गार तो न्यूनतम तौर पर भी होना ही चाहिए. पर सरकार छह सालों के बाद भी लक्ष्य रख रही है स़िर्फ 58 मिलियन रोज़गार के अवसरों का. अब कांग्रेस नीत सरकार की धोखाधड़ी समझने के लिए इससे बड़ा उदाहरण तो हो ही नहीं सकता. देश के नौजवानों के दुर्भाग्य की यह कहानी तब है, जबकि देश के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों ही मूर्धन्य अर्थशास्त्री हैं. और, देश के भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देखे जाने वाले राहुल गांधी यह कहते नहीं थकते कि उनकी सरकार की प्राथमिकता ही है सत्ता और समाज में ग़रीबों की न्यायपूर्ण भागीदारी. पर हक़ीकत यह है कि सत्ता में हिस्सेदारी-भागीदारी की बात तो बहुत  दूर, यहां ग़रीबों के निवाले तक से सियासत की जा रही है. तो ऐसी सरकार से भला देश के विकास की क्या उम्मीद की जाए, जिसकी अवधारणा ही झूठ की नींव पर खड़ी हो

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