उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों ने कांग्रेस
महासचिव को सियासत का गणित
सिखा दिया है और अब उन्हें री-लाँच करने की
तैयारियां चल रही हैं
. वे अब बिलकुल नए
फोर्मेट में नज़र आ रहे हैं . राहुल गाँधी ने अपने इर्द गिर्द की ब्लैक बेरी जमात से भी दूरी
बनानी शुरू कर दी है . और देशी अंदाज़ को तरजीह देना शुरू कर दिया है . पिछले काफी वक़्त से राहुल , पार्टी से जुड़े सारे फैसले खुद ही करने लगे थे. उन फैसलों
में ना तो उनकी माँ सोनिया गांधी शामिल होती थीं , ना ही उनमे कांग्रेस के बुज़ुर्ग नेताओं के परिपक्व विचारों और सलाहों की ही
कोई जगह थी . पर यूपी में मिली पटखनी ने राहुल गाँधी का
मिजाज़ ,
उनके तेवर और उनकी भाव भंगिमा बदल कर रख दी है . तने हुए कंधे
अब झुके नज़र आ रहे हैं . अब वे अपने कुरते की बाहों को ताव के साथ ऊपर नहीं चढाते
.और ना ही बात बात पर सामने वाले को उँगलियाँ दिखाते
हैं . और खास बात यह की राहुल गाँधी अब ना सिर्फ अपनी माँ सोनिया गाँधी से राय -
मशविरा कर रहे हैं ,
बल्कि उनकी सलाह पर वे कांग्रेस के उन वरिष्ठ
नेताओं का भरोसा हासिल करने में लगे हैं , जिन्हें खुद राहुल ने ही हाशिये पर डाल दिया था .
यूपी के चुनावी नतीजे आते ही राहुल थाई
एयरवेज की एक फ्लाईट से 8
मार्च को ही पहले बैंकाक और फिर वहां से ‘स्कूवाडायविंग’ के लिए फिलीपींस चले गए थे. फिर हाल में ही उन्होंने यूरोप की ठौर पकड़ ली थी . राहुल गाँधी को नज़दीक
से देखनेवालों ने बखूबी महसूस किया कि राहुल अपना आत्मविश्वास लूज़ कर बैठे हैं
. जिसकी बड़ी वज़ह रही ,टीम राहुल’ की विदेशी शैली , सोच, उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता और अनुभवहीनता.उत्तर प्रदेश के नेताओं ने हार की समीक्षा के दौरान, यूपी में हार का
ठीकरा राहुल की विदेशी नजरिये वाली टीम के ही सर फोड़ा .
राहुल गाँधी ने जब से राजनीति में क़दम रखा ,
तब से उनके साथ साए की तरह रहने वाले एक शख्स
बताते हैं फिलिपींस से लौटने के बाद भी जब राहुल गाँधी देश के लोंगो के सामने आने
की बजाय यूरोप चले गए . तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की पेशानी की लकीरें और
गहरी हो गयीं . उत्तर प्रदेश में मिली करारी शिक़स्त से ज्यादा मलाल उन्हें , अपने बेटे के मलीन चेहरे और झुके कन्धों को
देख कर हुआ . सोनिया को लगा कि अगर राहुल गाँधी का आत्मविश्वास वापस नहीं आया तो
चारो और से हर फ्रंट पर घिरी उनकी पार्टी मटियामेट हो जायेगी . और तब सोनिया गाँधी ने अपने और राजीव गाँधी के वफादार रहे नेताओं की सूची
बनायी और सबको खुद ही फोन कर के राहुल से मिलने को बुलाया . जिसमे सबसे चौंकाने वाला
नाम रहा ,
सोनिया गाँधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल का
. सियासी गलियारों में दखल रखने वाले जानते हैं की राहुल गाँधी
ने कभी भी पसंद नहीं किया . राहुल ने कभी अहमद पटेल की सलाहों को तरजीह नहीं दी , ना ही अपनी बैठकों में उनकी मौजूदगी को ही कभी पसंद किया . पर हार की मार ने राहुल के
पसंद - नापसंद पर भी गहरा असर डाला है . अब उन्हें अहमद पटेल से कोई परेशानी नहीं
. बल्कि पिछले दो हफ़्तों में राहुल ने अहमद पटेल से तीन लम्बी बैठकें की हैं और
आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र गहन
विमर्श किया है . अहमद पटेल की सलाह पर ही राहुल गाँधी ने महारास्त्र का दौरा किया
और मुंबई में गुजरात के नामचीन उद्योगपतियों से भी मिले और गुजरात विधान सभा चुनाव
के मद्देनज़र विमर्श किया . सोनिया गाँधी ने अहमद पटेल के अलावा ग़ुलाम नबी आजाद मोतीलाल वोरा , अम्बिका सोनी ,
माखनलाल फोतेदार , मणिशंकर अय्यर , सी के जाफ़र शरीफ ,
आर के धवन , श्रीनिवास तिवारी ,मोहसिना किदवई , जयराम रमेश , ए के अंटोनी आदि की कोर टीम बनायी है . जो राहुल गाँधी को भारतीय परिवेश और सोच के हिसाब से राजनीति के
लिए तैयार करेगी .अपनी माँ सोनिया गाँधी के कहने पर कर रहे हैं .कांग्रेस के जिन
पुराने फर्माबदार नेताओं को राहुल गाँधी से मिलने के लिए समय ब-मुश्किल
मिलता था . उन्हें अब राहुल गांधी ढूंढ़-ढूंढ़ कर बुलवा रहे हैं और उनकी बातों और
सलाहों पर अमल करने लगे हैं. वर्ना अभी तक तो होता यही था कि जो जमीनी नेता राहुल के सामने अपनी बात रखना भी चाहते था , उसे फरमान सुना दिया जाता था कि वे राहुल कार्यालय को पहले ही बातचीत का ‘प्वाइंट’ बना कर भेज दें. और जब वे राहुल गाँधी से मिलें तब जो भी कहना है बेहद शोर्ट में कहें .
राहुल गाँधी की पुरानी राजनैतिक शैली में उनके सखा कनिष्क सिंह और कांग्रेस के लिए काम कर
रही
दो राजनैतिक विशेषज्ञों जोया हसन और सुधा पई का बहुत दखल रहा . कनिष्क
सिंह के अलावा ,
ये दोनों महिलायें उत्तर प्रदेश के चुनावों के दरम्यान राहुल
गांधी की सबसे खास और भरोसेमंद राजनीतिक सलाहकार रहीं . जोया हसन और सुधा पई , दोनों ही पॉलिटिकल साईंटिस्ट हैं और जवाहरलाल
नेहरु विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . जोया हसन जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय
के वाईस चांसलर मुशीरुल हसन कि पत्नी हैं और नेशनल कमीशन ऑफ़ मायनोरिटिज़ की
फोर्मर मेंबर भी रही हैं . जोया हसन ने उत्तर प्रदेश की जाति आधारित राजनीति , खासकर दलित और मुस्लिम राजनीति पर कई शोध
किये हैं और किताबें भी लिखी हैं . वहीँ सुधा पई भी डेमोक्रेटिक गवर्नेंस , सिविल सोसाईटी और दलित मूवमेंट्स की विशेषज्ञ मानी जाति हैं . दर्जनों
किताबों और सैकड़ों
जर्नल्स की लेखिका हैं . राहुल गाँधी ने इन तीनो के मशविरे पर, किसी भी और नेता के मुकाबिले ज्यादा कान दिया. पर यूपी के नतीजों ने साबित
कर दिया की आंकड़ों का तिलिस्म , किताबी ज्ञान और
हकीक़त में बड़ा फासला होता है , खासकर जब बात
राज -काज और सियासत की हो . कांग्रेस के एक वरिष्ठ
नेता बताते हैं की राहुल गाँधी की एक खास आदद्त है की वे किसी की बातों का यूँ ही
यकीन नहीं करते . उसका डाटा हासिल कर विश्लेषण करते हैं . राहुल हर बात और काम का
पक्का आंकड़ा चाहते हैं .कनिष्क सिंह , अपनी टीम के ज़रिये आंकड़ों को इकठ्ठा कर उसका विश्लेषण करते हैं . इस काम में सुधा पाई और जोया हसन उनकी मदद करती हैं .
उत्तर प्रदेश चुनाव की तारीख घोषित होने के महीनो पहले कनिष्क सिंह अपनी पूरी टीम
के साथ आंकड़ों के इस खेल का विश्लेषण करने में लगे हुए थे . तब कनिष्क ने राहुल
गाँधी से यह कहा था की आंकड़ों के जरिए कांग्रेस अपने प्रतिद्वंदियों को बेहतर
तरीके से जान पाएगी और उनके खिलाफ ठोस रणनीति बना पाएगी . इससे राजनीतिक रणनीति के
अलावा
उम्मीदवारों के चयन में भी आसानी होगी .और
यही पर राहुल गाँधी की टीम चूक गयी . आंकड़ों के जरिए बाजीगरी दिखने की फ़िराक में
वे मूल और भावनात्मक मुद्दों से भटक गए. गलत उम्मीदवार चुना और मुंह की खायी .
लिहाज़ा अब राहुल महज़ अपनी कोर टीम यानी कनिष्क सिंह , सुधा पाई और जोया हसन पर भरोसा रख , गुजरात और अन्य राज्यों के विधान सभा
चुनावों में कोई भी रिस्क लेने को तैयार नहीं हैं. सोनिया गाँधी कि बात , राहुल कि समझ में आ गयी है . वो जान चुके हैं
कि जिन पुराने कांग्रेसियों ने उनकी माँ को कुम्भ लेजाकर , गंगा स्नान करा कर , देशज अंदाज़ सिखा कर विदेशी बहु के चोगे से
बाहर निकाला ,
अब वही बुज़ुर्ग कांग्रेसी नेता अपने तजुर्बों
से उनका जनाधार भी बढ़ाएंगे .
इसी के तहत अब राहुल एआईसीसी यानी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में व्यापक
फेरबदल की तैयारी में हैं . विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन की
जांच के लिए गठित एंटनी कमेटी की रिपोर्ट भी आ चुकी है . और प्रदेश प्रभारियों पर इसकी गाज गिरने वाली
है. दिग्विजय सिंह यूपी , वीरेंद्र सिंह
उत्तराखंड और
दिल्ली तथा गुलचैण सिंह चरक पंजाब के प्रभारी थे . साथ
ही राहुल संगठन को मज़बूत करने कि दिशा में ठोस और डंडातमक पहल करना चाहते हैं . लिहाज़ा यूपी के तीनों जूनियर मंत्रियों आर.पी.एन
सिंह,
जितिन प्रसाद व प्रदीप जैन को संगठन में भेजा
जा सकता है.जितिन प्रसाद के कहने पर 14 टिकट दिए गए,
जिसमें से 11 कांग्रेसी उम्मीदवारों की तो जमानत जब्त हो गई, अन्य 3
भी बुरी तरह हारे.
सूत्र बताते हैं कि दिग्विजय सिंह की जगह यूपी के कांग्रेसी सचिव अविनाश पांडे को
प्रदेश का प्रभारी बनाने की बात पर विचार चल रहा है .वहीँ प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अप्रत्याशित तौर से
रशीद मसूद के भतीजे इरफ़ान का नाम सामने आ रहा है . दौड़ में आर.पी.एन.सिंह भी हैं लेकिन राहुल गाँधी इरफान की कार्यशैली और उनकी भाषण कला के
मुरीद बन गए हैं . राहुल इस बहाने प्रदेश के मुसलमानों को एक सकारात्मक सन्देश भी
देना चाहते हैं . पर सूबे के कांग्रेसी नेताओं में इरफ़ान के नाम पर बवाल मचा हुआ
है . वे इरफ़ान का इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि इरफ़ान को कांग्रेस में आये हुए
अभी कुछ महीने ही हुए हैं . ऐसे में सूबे के तमाम नेताओं को दरकिनार कर कांग्रेस
हाई कमान ऐसा निर्णय कैसे कर सकता है . यूपी के मुद्दे पर हुई कांग्रेस की चिंतन
बैठक में राहुल गांधी ने साफ कर दिया था कि वे कांग्रेसी नेताओं की ‘अकाऊंटिबिलिटी फिक्स’ करेंगे . इस लिहाज़ से यूपी कोटे के काबीना मंत्रियों श्रीप्रकाश
जायसवाल,
बेनी प्रसाद वर्मा व सलमान खुर्शीद के भी पर
कतरे जाने के पुरे आसार हैं . राजबब्बर मीडिया
कमेटी के प्रभारी थे,
इनकी छुट्टी भी तय मानी जा रही है.
विद्याचरण शुक्ल और अजित जोगी जैसे पुराने
नेताओं का भी अब कांग्रेस बखूबी इस्तेमाल करने कि सोच रही है , इसलिए पार्टी में इनका कद ऊँचा करने कि कवायद
भी चल रही है .
पूर्व केंद्रीय मंत्री जाफर शरीफ, आरके धवन और श्रीनिवास तिवारी इधर कई सालों
से राजनीतिक रूप से कमजोर हो चले हैं. पार्टी में इनकी कोई जगह ही नहीं रही . कर्नाटक से आने वाले जाफर शरीफ
विधानसभा चुनाव के दौरान अपनी उपेक्षा से काफी नाराज़ भी हो गए थे.उन्हें मनाने के लिए कांग्रेस
अध्यक्ष सोनिया गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा था. जाफर शरीफ को यह कहकर मनाया गया
था कि उन्हें वाजिब सम्मान
दिया जाएगा. चर्चा थी कि जाफर शरीफ को राज्यसभा में लाया जाएगा.
लेकिन उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया. फिर उन्हें कहा गया कि उन्हें राज्यपाल बनाया जाएगा . दरअसल आरके धवन और श्रीनिवास तिवारी से पहले
जाफर शरीफ का ही
नाम राज्यपाल के लिए चल रहा था. आर के धवन के
साथ भी कुछ ऐसा ही बर्ताव किया गया . गांधी परिवार के करीबी रहे आरके धवन का जब
राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हुआ तो उन्हें फिर से अवसर नहीं दिया गया.हिमाचल समेत जिन
राज्यों के वह प्रभारी थे वे भी उनके पास नहीं रहे. कांग्रेस कार्यसमिति में विशेष
आमंत्रित सदस्य रहकर भी आरके धवन एक तरह से पार्टी में हाशिए पर ही चले गए. मौजूदा
सरकार में भी उनका कुछ दखल नहीं रहा . यही कहानी माखनलाल फोतेदार और अजित जोगी के
साथ भी दोहराई गयी . कहने को फोतेदार और जोगी
कांग्रेस कार्यसमिति के विशेष आमंत्रित सदस्य हैं लेकिन कांग्रेस पार्टी इनका
पार्टी हित में कोई इस्तेमाल नहीं कर रही . जोगी को अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ का
प्रमुख तो बना कर रखा गया है , पर पार्टी ने
उनको छत्तीसगढ़ की राजनीति में जान बूझ कर कमज़ोर
किया . लेकिन अब पार्टी और कांग्रेस आलाकमान को यह बात साफ़ तौर पर समझ आ गयी है कि
अगर कांग्रेस को २०१४ के लोकसभा चुनाव में जीवित देखना है तो
पार्टी कि कार्यशैली और नीतियों में आमूल चूल परिवर्तन करना होगा. दंभ और गुमान से
उबरना होगा . लोगों को इस्तेमाल कर उन्हें किनारे फेंक देने कि आदत से बाज आना
होगा . वरना भारतीय राजनीति के परिदृश्य में कांग्रेस का वजूद हाशिये पर सिमट कर रह
जाएगा .
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