मेरे मीत ,
जीवन के अभिशाप को
सौगात बनाकर
पाषाण को इंसान बनाकर
उस मौन को अपने
नयनों की वाणी देकर
उस गहन रिक्तता को
सघन पूर्णता में बदलकर
शुष्क रेगिस्तान में
संगीत सरिता बहाकर
एक पत्थर की पूजा बनकर
तुम बने थे पुजारी
हाँ ! वो तुम्हे ही थे
जिसकी रचना मैं बनी
शब्द मैं थी
भाव मैं थी
और अंत भी मैं ही थी
लेकिन अब आज मैं
सिर्फ ' कुंतल ' बनी बैठी हूँ
उन सतरंगी चूड़ियों के
टुकड़ों के बीच
जो सिर्फ मेरे ' सिद्धार्थ ' के लिए हैं ......
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