नक्सलियों का चक्रव्यूह |

4000 वर्ग किलोमीटर में फैले अबुझमाड़ के जंगल, नदी, पहाड़ और यहां के 237 गांवों में रहने वाले लगभग 26 हज़ार आदिवासी आज भी अपनी आदिम संस्कृति में ही जी रहे हैं. वे पेड़ों की छाल पहनते हैं, कंद मूल खाते हैं और जानवरों का शिकार करते हैं. अंजान आदमी को देखते ही वे ज़हर बुझे तीर चला देते हैं.
उन्हें सरकार या सरकार की किसी योजना-परियोजना से कोई लेना-देना नहीं. आज तक इन गांवों में न तो कोई सरकारी सर्वेक्षण हुआ है, न ही कोई सरकारी कर्मचारी ही यहां पहुंचा है. जंगल इतने घने हैं कि सूर्य की रोशनी भी इन्हें नहीं भेद पाती. दिन के समय भी रात का आभास होता है. दुर्गम क्षेत्र होने के कारण ही नक्सलियों ने इस जंगल को अपना ठिकाना बना रखा है. बस्तर संभाग में पड़ने वाले तीन ज़िलों दंतेवाड़ा, नारायणपुर और बीजापुर के ये क्षेत्र नक्सलियों के लिए स्वर्ग बन चुके हैं. पीडब्ल्यूजी की रीजनल इकाई ने 1980 में ही इस क्षेत्र को अपना मुख्यालय घोषित कर दिया था. वे यहां छुपकर रहते थे, योजनाएं बनाते थे और आतंक मचा कर फिर वापस इन्हीं ठिकानों पर आ कर छुप जाते थे. बावजूद इसके सरकार ने पिछले तीन दशकों से यहां किसी भी बाहरी आदमी के आने-जाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था. इन तीन दशकों में नक्सलियों ने अबुझमाड़ के जंगलों में रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों के हाथ में ज़हर बुझे तीर कमान की जगह मशीनगन थमा दी है और इस बात की घुट्टी पिला दी है कि देश और राज्य की सरकारें, उनके क़ायदे-क़ानून तथा उनके विकास कार्य सभी आदिवासियों की जान और ज़मीन के दुश्मन हैं. नक्सलियों ने आदिवासियों का भरोसा जीतने की ख़ातिर उनके संस्कार और परंपराओं को अपनाया.
उनके देवताओं की पूजा की. यहां तक कि उनकी बहन-बेटियों से शादियां भी की. और, अब जब नक्सली मुसीबत में हैं तो सेना और पुलिस से बचने के लिए नक्सली उन्हीं आदिवासियों को हथियार की तरह इस्तेमाल भी कर रहे हैं. सेना और सरकार धर्मसंकट में है. वह माओवादियों का सफाया करने के एवज़ में निर्दोष आदिवासियों का ख़ून नहीं बहाना चाहती. गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी इस ऑपरेशन में मुक़म्मल सूचना की खामी को क़बूल करते हैं. वे कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों ने जो सूचनाएं दीं, उनसे सही तस्वीर का आकलन नहीं हो सका. हालात की नज़ाकत और गंभीरता समझने में हुई चूक के कारण ही ऑपरेशन ग्रीन हंट और ऑपरेशन एरिया डोमिनेशन को अंज़ाम देने में दुश्वारियां पेश आ रही हैं. हालांकि सेना और पुलिस के टोही विमानों से ऑपरेशन के पहले जो तस्वीरें ऊंचाई से ली गई थीं, उनमें नक्सलियों के बेस कैंप और ट्रेनिंग कैंपों की तस्वीर बेहद सा़फ आई है, पर नक्सलियों ने ज़मीन के अंदर अपने जो ठिकाने बनाए हैं, उनका ऩक्शा सही तौर पर उभर कर नहीं आ पाया है.
ऑपरेशन ग्रीन हंट के दरम्यान इन्हीं कैंपों को निशाना बनाया जा रहा है. एक साथ बड़ी संख्या में सैनिकों और अर्द्धसैनिक बलों को इन गांवों में छोड़ा जा रहा है, ताकि अगर हज़ार की भी संख्या में नक्सली सैनिकों पर जवाबी हमला करें तो भी उनका कुछ न बिगाड़ सकें.
इसी दौरान सरकार गांवों में यह मुनादी भी करवा रही है कि जो नक्सली आत्मसमर्पण करना चाहें, वे निसंकोच आत्मसमर्पण कर सकते हैं. उनकी सज़ा में तो रियायत होगी ही, साथ ही अगर वे अपने हथियार भी सौंपते हैं तो उन्हें अलग से प्रोत्साहन राशि भी दी जाएगी. अलग-अलग हथियारों की प्रोत्साहन राशि अलग-अलग है. जैसे अगर कोई नक्सली मशीनगन या स्निफर राइफल सौंपता है तो 25 हज़ार रुपये, राइफल के लिए 15 हज़ार रुपये, पिस्तौल या रिवॉल्वर या फिर बारूदी सुरंग के लिए तीन हज़ार रुपये मिलेंगे. ज़मीन से हवा पर मार करने वाली मिसाइल सौंपने पर 20 हजार रुपये, एक सैटेलाइट फोन के लिए 10 हज़ार रुपये, लंबी दूरी के सेट के लिए पांच हज़ार रुपये और कम दूरी के सेट के लिए एक हज़ार रुपये तथा प्रति कारतूस तीन रुपये मिलेंगे.
छत्तीसगढ़ पुलिस के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि सरकार की इस घोषणा का कोई नतीज़ा निकलता नहीं दिख रहा. युद्ध छिड़ा हुआ है और ऐसी स्थिति में नक्सली सरकार के इस वादे पर एतबार नहीं कर पा रहे हैं. नक्सलियों को लग रहा है कि यह उन्हें झांसे में लाने का सरकारी तिकड़म है. इसके अलावा पुलिस और सैन्यबलों की जो सबसे बड़ी मुश्किल है, वह यह कि माओवादी ऑपरेशन ग्रीन हंट से बचने के लिए मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाक़ों के गांवों में जाकर छुप गए हैं. अब अगर सुरक्षाबल इन गांवों पर हमला करते हैं तो पहले गांव वाले ही मारे जाएंगे और ऐसी हालत में नागरिक विद्रोह पनपेगा, जो माओवादियों के मक़सद और मंसूबों को ताक़त देगा. हालांकि इन गांवों में भी सेना और अर्द्धसैनिक बलों की ग्रेहाउंड्स, कोबरा, स्कॉर्पियन और नगा बटालियन तलाशी ले रही हैं, पर माओवादियों की पहचान करने में उन्हें बहुत फजीहत झेलनी पड़ रही है.
पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री और नक्सली समस्या के जानकार डॉ. अशोक मित्रा कहते हैं कि माओवादी जानबूझ कर ऐसी हिंसक घटनाएं करते हैं या उपद्रव फैलाते हैं, ताकि सरकार भड़क जाए और वह नाराज़गी में ऐसे क़दम उठा
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