Ruby Arun

Monday 18 June 2012

सियासत की बिसात.....रूबी अरुण




सियासत की बिसात

सियासतदानों की कलई उतरने लगी है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं के बहाने सियासी पार्टियां अपनी-अपनी गोटी फिट करने की जुगत में हैं. इस कोशिश में दलित ईसाई और मुसलमानों की कोई फिक्र नहीं है. अगर कुछ है तो वह है ख़ुद का फायदा कराने का तिकड़म. हर पार्टी इन दिनों रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं का गहन अध्ययन कर रही है. पार्टियों को उन मुद्दों की तलाश है, जिनकी बिना पर वह आम अवाम की नज़रों में वीर्यवान नायक बन सकें. हालांकि इस उठापटक और जोड़-तोड़ की राजनीति में फिलहाल कोई भी पार्टी अपना रुख़ खुले तौर पर सा़फ करने से परहेज कर रही है. हालात संशय के भी हैं और उधेड़बुन के भी. लेकिन झंझावात सबके ज़ेहन में है. लिहाज़ा इस मसले पर भारतीय राजनीति में दंगल मचने के पूरे आसार हैं. हमने इस मुद्दे पर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बात की. सवाल स़िर्फ इतना कि क्या सरकार कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करेगी? और अगर लागू कर देती है तो यह १५ फीसदी आरक्षण सरकार को किस कोटे से देना चाहिए- जनरल, ओबीसी या एससी-एसटी कोटे से? हमें जो जवाब मिले, उनसे रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करने के मसले पर मचे सियासी घमासान का परिदृश्य सा़फ हो गया.
ख़ुद को दलितों का मसीहा कहलाना पसंद करने वाले लोक जनशक्ति पार्टी अध्यक्ष रामविलास पासवान इस सवाल पर छूटते ही कहते हैं, रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसा तो हर हाल में लागू होनी ही चाहिए. और रही कोटे की बात, तो सामान्य कोटे से ही १५ फीसदी आरक्षण दिया जाना चाहिए. पर पासवान जी, अगर सामान्य श्रेणी में से १५ फीसदी आरक्षण दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को देने के लिए सरकार राजी हो जाती है तो देश में कैसा सामाजिक तू़फान उठेगा, इसका अंदाज़ा है आपको?
रामविलास पासवान फरमाते हैं, देखिए जब भी कोई नई पहल होती है, तो थोड़ी उथलपुथल होती है. लेकिन यह मसला मज़लूमों की तरक्की से जुड़ा है, इसलिए हम इसकी लड़ाई पुरज़ोर तरीक़े से लड़ेंगे. मतलब सा़फ है कि रामविलास पासवान अपने परंपरागत दलित-पिछड़ों के वोट बैंक को छोड़ना नहीं चाहते. अब बात करते हैं उस पार्टी की, जो खुद को ग़रीबों के अधिकारों की जंग लड़ने वाला अकेला वीर-बांकुरा साबित करने की हर व़क्त जद्दोजहद में रहती है. इसके महासचिव प्रकाश कारात फिलहाल इस मसले पर कुछ भी कहना नहीं चाहते हैं. इसके लिए उनके पास एक बड़ा माकूल सा जवाब है, मैंने अभी रिपोर्ट प़ढी नहीं है, इसलिए अभी इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता. अब प्रकाश कारात ऐसा कह रहे हैं तो उनकी बात माननी पड़ेगी, लेकिन एक सहज जिज्ञासा होती है कि क्या वाकई सच यही है? प्रकाश कारात जैसे बुद्घिजीवी और बेहद सजग नेता क्या सचमुच कमीशन की रिपोर्ट से अभी तक नावाक़ि़फ हैं? हालांकि प्रकाश यह ज़रूर कहते हैं कि उनकी पार्टी पहले रिपोर्ट के हर पहलू पर ग़ौर करेगी, फिर इस पर कोई प्रतिक्रिया देगी.
हालांकि रु़ख इनका सकारात्मक ही है. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य पार्टी की लाइन के मुताबिक़ उद्‌घोष भी कर रहे हैं. बुद्घदेव कहते हैं कि देश में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को विकास का एक समान मौक़ा मिलना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी अपने पुराने रवैये पर ही क़ायम है. वह कतई नहीं चाहती कि इन अनुशंसाओं को लागू किया जाए. यह अलग बात है कि भाजपा भी सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह के साथ इस बात के पक्ष में है कि रिपोर्ट पेश की जाए. पर रिपोर्ट लागू हो, ऐसी मंशा भाजपा की नहीं है. भाजपा नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि इससे कई दुश्वारियां पैदा होंगी. भारतीय संविधान में, संसद में और प्रदेशों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों के लिए पहले से ही आरक्षण है. यदि इस अनुशंसा को लागू कर दिया जाता है तो दलित श्रेणियों के लिए आरक्षित लोकसभा और विधानसभा की इन सीटों पर ईसाई या मुसलमान जाति के लोग भी चुनाव लड़ सकेंगे. इससे उन्हें दोहरा लाभ होगा, जो भारतीय समाज के हित में नहीं है. भाजपा नेता अरुण जेटली भी सुषमा स्वराज की बात पर हामी भरते हैं. अरुण जेटली कहते हैं कि यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सोची- समझी रणनीति की पहली कड़ी है. अनुशंसा लागू होगी तो आरक्षण का फायदा उठाने के लिए धर्मांतरण के मामले बढ़ेंगे. सामाजिक समीकरण बिगड़ेगा. जिस प्रदेश में ईसाइयों और मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है, वहां वे सत्ता संभालने की स्थिति में भी आ सकते हैं. ऐसी हालत में भारतीय समाज की दलित जातियों में निराशा-हताशा फैलेगी. उनके उत्थान में अवरोध पैदा होगा. इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि इस साजिश को शुरुआत में ही तोड़ा जाए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्यसभा सांसद डी राजा की दलील भी बिल्कुल प्रकाश कारात की तर्ज़ पर है. वह दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों की तऱक्क़ी तो चाहते हैं, पर फिलहाल कुछ भी कहने से बचना चाहते हैं. वजह वही, जो प्रकाश कारात फरमा रहे हैं. अभी रिपोर्ट का अध्ययन नहीं किया है, उन्होंने उसकी बारीकी नहीं समझी है. लिहाज़ा अभी कुछ बोलना मुनासिब नहीं. ज़ाहिर है, मुस्लिम आरक्षण के नाम पर सियासी दलों ने अपनी-अपनी हांडी चढ़ा रखी है.
हैरानी इस बात की है कि इस मुद्दे पर राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती ने खामोशी साध रखी है. लालू यादव और मायावती, दोनों ही खुद को दलितों और मुस्लिमों का फरमाबदार साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते. फिर यह चुप्पी क्यों? क्या पक रहा है इनके ज़ेहन में? लालू यादव ने तो इतना भी कहा कि वह अनुशंसाओं को लागू कराने के लिए आंदोलन करेंगे, पर मायावती तो पूरे परिदृश्य से ग़ायब हैं.
हालांकि यह वही मायावती हैं, जिन्होंने वर्ष २००६-०७ में इस मसले को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास चिट्ठियों का पुलिंदा भेजा था. क्या डर है मायावती को? अपना वोट बैंक खिसकने का या अगड़ी जातियों के नाराज़ होने का? क्यों उहापोह की स्थिति में हैं मायावती?
रही बात लालू यादव की, तो अभी शायद वह तेल और तेल की धार देख रहे हैं. वाजिब भी है. फिलहाल वह प्रदेश और देश की राजनीति में कहीं नहीं हैं. बिहार में वह दोबारा अपने पैर जमाने की कशमकश में हैं. लाजिमी है, ऐसे संजीदा मसले पर वह पूरी तरह ठोक-बजाकर ही मुंह खोलेंगे.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी वेट एंड वॉच का रु़ख अपना रखा है. हालांकि वह और उनकी पार्टी पूरी तरह इस आरक्षण के पक्ष में हैं. जदयू के ही राज्यसभा सांसद अली अनवर की लंबी लड़ाई का ही नती़जा है कि यह मसला यहां तक पहुंचा और सरकार पर इतना दबाव बन सका कि वह रिपोर्ट संसद में पेश करने को मजबूर हो गई.
पर इन सभी सियासी दांव-पेंचों के बीच सरकार और कांग्रेस पार्टी की स्थिति दोधारी तलवार पर चलने जैसी हो गई है. सरकार ने सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और अन्य नेताओं के दबाव में इसे संसद में पेश तो कर दिया, पर उसे डर है कि कहीं उसकी हालत वी पी सिंह सरकार जैसी न हो जाए. हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी इस पर बड़े एहतियात से बात करते हैं. वह कहते हैं कि सरकार इसे लागू करने की हर संभावना पर ग़ौर कर रही है. जब सरकार ने इसे संसद में पेश कर दिया है तो इसके हरेक पहलू पर विचार कर लागू कराने की भी कोशिश करेगी. लेकिन कांग्रेस के एक बड़े नेता सच कह ही जाते हैं. फरमाते हैं कि सरकार ने संसद में गुमनाम तरीक़े से तो इस रिपोर्ट को रख दिया, पर इसे लागू करने की हिम्मत वह नहीं दिखा सकती, क्योंकि उसे पता है कि इससे मंडल-कमंडल का दौर एक बार फिर से शुरू हो जाएगा. सामान्य श्रेणी से आरक्षण तो सरकार देगी नहीं. मंडल आयोग ने जो २७ फीसदी आरक्षण पिछड़ों को दिया है, उसी में से आरक्षण देने का रास्ता निकालने की कवायद होगी. मतलब यह कि एक पिछड़ा दूसरे पिछड़े के पेट पर लात मारेगा. संविधान में भी कई बदलाव करने होंगे, क्योंकि भारतीय संविधान में सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म में ही दलित को परिभाषित किया गया है. दूसरा सवाल यह कि शैक्षणिक संस्थानों में १५ फीसदी आरक्षण कहां से आएगा? क्योंकि अनुसूचित जाति/जनजाति के कोटे से तो अल्पसंख्यकों को लाभ नहीं दिया जा सकता और न ही सामान्य श्रेणी के ५० फीसदी कोटे से. दोनों ही स्थितियों में देश में आग लग जाएगी. सबसे बड़ा सवाल यह कि आख़िर सरकार करेगी क्या? सरकार इसे लागू कर कुंए में गिरना पसंद करेगी या फिर लागू न करके खाई में छलांग लगाना या फिर रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट सियासत की बलि च़ढ जाएगी

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