Ruby Arun

Monday 18 June 2012

सत्ता की वसीयत सियासत की विरासत .....रूबी अरुण


सत्ता की वसीयत सियासत की विरासत

हिंदुस्तान में अब विरासत की ही सियासत होगी. वंशवाद की ही राजनीति होगी. इस सियासी दुनिया में आम आदमी के लिए जगह पाना तो पहले भी मुश्किल था, अब तो नामुमकिन सी बात होगी. हां, अगर राजनीति में आपका कोई माई-बाप है, तब तो आप सपने संजोने की क़ाबिलियत रखते हैं. अगर नहीं है तो आपको राजनीति में रहने का कोई हक़ नहीं है. यह हम नहीं कह रहे, बल्कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी एवं उनके सलाहकारों द्वारा कांग्रेस को युवा तेवर और चेहरा देने की खातिर तैयार किया गया ब्लू प्रिंट कह रहा है. हालांकि राहुल गांधी अभी उत्तर प्रदेश के चुनावी महासमर में अपनी क़िस्मत आज़मा रहे हैं. वह जीत का दावा तो कर रहे हैं, पर मतदाताओं की बेरु़खी से परेशान भी हैं. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी राहुल को नहीं पता कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने उनके मुस्तक़बिल के लिए क्या तय कर रखा है. जीत का सेहरा या हार का ग़ुबार. बावजूद इसके राहुल ने भविष्य की योजनाएं भी तय कर ली हैं. मसलन यह कि आने वाले सालों में देश के विभिन्न राज्यों में जो विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें किन चेहरों को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया जाएगा. राहुल गांधी द्वारा बनाई गई इस टीम में युवा चेहरे तो हैं, पर सभी खानदानी सियासतदां हैं और बरसों से उनके बाप-दादा कांग्रेसी होने की परिपाटी निभा रहे हैं, महज़ एक को छोड़कर, वह हैं बिहार से राजद सांसद रहे और अब कांग्रेस के फरमाबरदार बने साधू यादव.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की कमज़ोर हो रही स्थिति के बारे में भी राजनीतिक विश्लेषकों का यही अनुमान है कि जबसे मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, तबसे लोगों का उनसे मोह भंग होने लगा. नरेंद्र मोदी, जयललिता, नवीन पटनायक एवं ममता बनर्जी के पीछे जो अपार जन समर्थन है, उसकी वजह यही बताई जाती है कि इन नेताओं ने खुद को वंशवाद से दूर रखा है. आम लोगों को यह लगता है कि ये नेता चूंकि भाई-भतीजावाद से दूर हैं, इसलिए जनता और देश के हित में ये बेहतर काम कर सकते हैं.
चौथी दुनिया को राहुल के सलाहकारों की टीम से जो जानकारी मिली है, उसके मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट बेनी प्रसाद वर्मा की ज़बरदस्त मु़खाल़फत होने के बाद अब चुपके से केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने लाने की तैयारी की जा रही है. फिलहाल वक़्त और मौक़े का इंतज़ार किया जा रहा है. हरियाणा का चुनाव अभी दूर है, पर इस बार मुख्यमंत्री के रूप में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा को पेश करने की तैयारी है. पंजाब में परमजीत कौर का नाम सामने है. दिल्ली में भी इस बार मुख्यमंत्री की बदली हुई शक्ल देखने को मिल सकती है, पर वह भी शीला दीक्षित के वंशज ही होंगे यानी संदीप दीक्षित. राजस्थान में राहुल गांधी अशोक गहलोत को फिर से पार्टी का चेहरा बनाने के मूड में नहीं दिख रहे, लिहाज़ा उन्होंने अपने व़फादार रहे और काम से ज़्यादा चाटुकारिता में यक़ीन रखने वाले सी पी जोशी को चुना है. जीवनपर्यंत कांग्रेस का लबादा ओढ़े रहे मोती लाल वोरा के सुपुत्र अरुण वोरा को राहुल ने इस बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने का मन बना रखा है. आंध्र प्रदेश के लिए राहुल की पसंद एन रघुवीरा रेड्डी हैं. मध्य प्रदेश की कमान कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा के बेटे जयवर्द्धन सिंह को सौंपने की तैयारी कर ली गई है. पश्चिम बंगाल में, हालांकि अभी यह दूर की कौड़ी है, फिर भी वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी को ममता बनर्जी के मुक़ाबले उतारने की तैयारी चल रही है. झारखंड में बालमुचू के दिन फिर सकते हैं, उन्हें कांग्रेस का दारोमदार सौंपा जा सकता है. आ़खिर में आता है बिहार, जहां राहुल गांधी की नज़र पिछड़ी जमात से आने वाले नेता साधू यादव पर है. हालांकि साधू यादव का कोई माई-बाप कांग्रेस में नहीं है और उनका सीधा मुक़ाबला अपने बहनोई लालू यादव से ही है, बावजूद इसके साधू बिहार में कांग्रेस के लिए एक मज़बूत स्तंभ का काम कर सकते हैं.
मौजूदा समय में बिहार के कांग्रेसियों के बीच ज़बरदस्त कलह चल रही है. जिन भूमिहार और मुस्लिम नेताओं को कांग्रेस ने प्रदेश की कमान सौंपी थी, उन्होंने दल का बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस के पास कहने को भी कोई ऐसा नेता नहीं बचा, जो  उसके वजूद को बचाए रख सके. ऐसे में साधू यादव कांग्रेस की मजबूरी बन चुके हैं. तमाम विवादों और आरोपों से घिरे रहने वाले साधू यादव की राह आसान नहीं है, पर युवा एवं पिछड़े होने, राजनीति में विधायक एवं सांसद के रूप में लंबे अनुभव और सभी जाति-बिरादरी में अच्छी पैठ रखने की वजह से उनका ग्राफ राहुल गांधी की नज़र में ऊंचा नज़र आ रहा है. वह भी इसलिए, क्योंकि बिहार के किसी दिग्गज कांग्रेसी की कोई औलाद इस क़ाबिल नहीं है कि उसे प्रदेश की कमान सौंपने के बारे में सोचा भी जा सके. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में युवा नेताओं का अकाल है या उन्हें माक़ूल सियासी ज़मीन नहीं दी जा सकती, पर मसला यह है कि अब राजनीति कोई मिशन नहीं, बल्कि सामाजिक वर्चस्व और आर्थिक ताक़त पाने का एक सहज ज़रिया बन चुकी है. एक बार हासिल कर लेने के बाद कोई भी राजनेता इसे आसानी से छोड़ना नहीं चाहता. इसलिए अपनी औलादों के ज़रिए वह अपनी सियासी ज़मीन पकड़े रहना चाहता है. आज कहने को संसद में तमाम युवा नेता मौजूद हैं, पर उनमें से ज़्यादातर किसी न किसी क़द्दावर नेता की संतान हैं. कांग्रेस और राहुल की कशमकश यह है कि पार्टी में जो दिग्गज नेता हैं, वे नाकाम हो चुके हैं या फिर जनता से उन्हें बेरु़खी मिल रही है. कांग्रेस उन्हें निकाल बाहर भी नहीं कर सकती, क्योंकि बग़ावती सुर उठ सकते हैं. डर यह भी है कि अगर एन डी तिवारी की तरह इन तथाकथित दिग्गजों ने अलग पार्टी बना ली तो कांग्रेस में अंदर ही अंदर कई धड़े हो जाएंगे. ज़ाहिर है, यह हालत कांग्रेस की सेहत पर विपरीत असर डालेगी. ऐसे में सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे वाला मुहावरा कांग्रेस के लिए मजबूरी बन चुका है. कांग्रेस की परिपाटी भी लोकतांत्रिक देश में राजशाही वाली है, लिहाज़ा तमाम इल्ज़ामों को झेलते हुए भी आम कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को मौक़ा देने की बजाय वंशवाद को तरजीह दी जा रही है.
देखने और ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि क्या जनता इस वंशवाद का बोझ ढोने को तैयार है? क्या अवाम राहुल गांधी और अन्य दूसरी पार्टियों द्वारा थोपी जा रही इस विरासत की सियासत के तले दबने और घुटने को राज़ी है? शायद नहीं. इसके  तमाम उदाहरण हैं हमारे सामने. वर्ष 2010 में बिहार चुनाव के ठीक पहले लालू यादव और रामविलास पासवान ने अपने-अपने बेटों को राज्य की जनता के सामने पेश किया, पर हुआ क्या? नीतीश कुमार एवं सुशील मोदी जैसे नेताओं को जीत हासिल हुई, जिन्होंने अपने परिवारीजनों को सियासत से दूर रखा. तमिलनाडु के मतदाताओं ने भी करुणानिधि की वह अपील खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने लोगों को यह याद दिलाने की कोशिश की थी कि उनके परिवार द्वारा दशकों और पीढ़ियों से तमिलनाडु की सेवा की जा रही है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की कमज़ोर हो रही स्थिति के बारे में भी राजनीतिक विश्लेषकों का यही अनुमान है कि जबसे मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया, तबसे लोगों का उनसे मोह भंग होने लगा. नरेंद्र मोदी, जयललिता, नवीन पटनायक एवं ममता बनर्जी के पीछे जो अपार जन समर्थन है, उसकी वजह यही बताई जाती है कि इन नेताओं ने खुद को वंशवाद से दूर रखा है. आम लोगों को यह लगता है कि ये नेता चूंकि भाई-भतीजावाद से दूर हैं, इसलिए जनता और देश के हित में ये बेहतर काम कर सकते हैं. यह अलग बात है कि इन नेताओं ने अपनी प्रभुत्ववादी शक्तियों का परिचय दिया है और इसके लिए विवादास्पद भी रहे हैं. विडंबना यह भी है कि पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा, सपा एवं बसपा जैसी पार्टियां कांग्रेस के खिला़फ वंशवाद को मुद्दा तो बना रही हैं, पर इस लाइलाज बीमारी से वे भी अछूती नहीं हैं. बहुदलीय भारतीय लोकतंत्र में जिस भी पार्टी को जिताऊ उम्मीदवार या युवा नेतृत्व की ज़रूरत होती है, उसकी तलाश अपने ही घर से शुरू होकर घर में ही खत्म हो जाती है. यही कारण है कि पंद्रहवीं लोकसभा में तक़रीबन आधे चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें पारिवारिक कारणों से टिकट मिला. केंद्र में एक दर्जन से ज़्यादा मंत्री भी किसी न किसी बड़े राजनीतिक घराने का प्रतिनिधित्व करते हैं.
राहुल गांधी ने जब सियासत में क़दम रखा था, तब उन्होंने कांग्रेस की युवा इकाई से परिवारवाद, संरक्षणवाद और धन बल की राजनीति का खात्मा करने का अपना सपना सबके साथ साझा किया था, लेकिन उसके बाद के अपने राजनीतिक सफ़र में राहुल ने कांग्रेस की युवा इकाई में जितने उम्मीदवारों का चयन किया, वे तमाम चेहरे किसी न किसी कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार या उनकी सरपरस्ती में पलने वाले, धन बल पर सियासत में अपनी पैठ रखने वाले लोग ही थे. ऐसे में यह एक कोरी कल्पना ही लगती है कि राहुल गांधी अपने सपने को पूरा करने की दिशा में कोई क़दम भी उठा पाएंगे या फिर कांग्रेस वंशवाद की परंपरा से उबर पाएगी. राहुल तो खुद ही इस परंपरा की सबसे मज़बूत कड़ी हैं. मनमोहन सिंह ने तब तक अमानत के तौर पर देश की गद्दी संभाल रखी है, जब तक राहुल राजकाज में प्रवीण नहीं हो जाते. ज़ाहिर है, ऐसे में राहुल वंशवाद की मानसिकता से बरी कैसे रह सकते हैं. लिहाज़ा उनका नया ब्लू प्रिंट न स़िर्फ उनकी सोच की हिमायत करता है, बल्कि केंद्र के साथ-साथ राज्यों को भी विरासत की सियासत की बेड़ी में जकड़ने की साज़िश भी रचता है.

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