कुछ तो रस्म-ए-वफा निभा रहा है वो.....
कभी बेवफा तो कभी मुझे मेहबूब बता रहा है है वो......
मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है...लफ़्ज़ों की जुस्तजू.....
मेरे अश्कों की स्याही से ... वो हर लम्हा लिखता है....
तहरीरे झूठ की सजाई है उसने.....
जब भी ज़िक्र खुद का आता है... वो खुद को वफा लिखता है....
कभी बेवफा तो कभी मुझे मेहबूब बता रहा है है वो......
मेरे संग़ बीते लम्हो से लेता है...लफ़्ज़ों की जुस्तजू.....
मेरे अश्कों की स्याही से ... वो हर लम्हा लिखता है....
तहरीरे झूठ की सजाई है उसने.....
जब भी ज़िक्र खुद का आता है... वो खुद को वफा लिखता है....
Nizam-e-Mehkada Kuch Is Qadar Bigra Howa Hai,
ReplyDeleteUnhe Ko Jaam Milta Hain, Jinhe Pena Nahi Aata.
Kaun meri chahat ka fasana samjhega is daur mein,
ReplyDeleteYahan to log apni zarurat ko mohabbat kehte hain…..
जब भी ज़िक्र खुद का आता है... वो खुद को वफा लिखता है....:-)
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