Ruby Arun

Thursday, 26 September 2013

आमने-सामने सीबीआई और आईबी

आमने-सामने सीबीआई और आईबी

दुनिया के किसी भी मुल्क में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि वहां की सरकार ने वोट-बैंक की खातिर देश की आतंरिक सुरक्षा को ही दांव पर लगा दिया हो, पर  हिन्दुस्तान में ऐसा हो रहा है. मनमोहन सरकार ने खुद को सही साबित करने और अपने विरोधियों को मात देने की नीयत से न सिर्फ देश की खुफिया एजेंसी इंटेलीजेंस ब्यूरो को बर्बादी के क़गार पर खड़ा कर दिया है, बल्कि अपने स्वार्थ के लिए आईबी और सीबीआई जैसी संस्थाओं को एक-दूसरे के खिलाफ ख़डा कर दिया है.
p-1

सरकार ने सीबीआई और आईबी के बीच प्रतिस्पर्धा और सहयोग की जगह झग़डा पैदा कर दिया है. इस प्रकिया में आईबी कटघरे में ख़डी हो गई है. इसी वजह से आईबी के अधिकारियों में सरकार के ख़िलाफ़ गुस्सा है. फिलहाल आईबी गृह मंत्रालय या राज्य  सरकारों से आंतरिक सुरक्षा संबंधी सूचना सीधे तौर पर साझा नहीं कर रही है, न ही आतंकवाद संबंधित किसी ऑपरेशन में ही वह राज्य सरकारों को कोई सहयोग दे रही है. आईबी के चीफ आसिफ इब्राहीम ने इस बाबत प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से पहले ही मिलकर यह कह दिया है कि नक्सलियों और आतंकवादियों के बारे में सही सूचनाएं देने पर भी उन्हें आरोपी बना दिया जाता है और उनकी गिरफ्तारी की नौबत आ जाती है. ऐसे में इंटेलीजेंस ब्यूरो के अधिकारियों का मनोबल टूटता है. लिहाजा, डीआईबी यानी डाइरेक्टर ऑफ आईबी द्वारा रोज़ प्रधानमंत्री से मिलकर देश के हालात से अवगत कराने का सिलसिला भी इन दिनों औपचारिक ही रह गया है. ज़ाहिर है कि यह स्थिति देश के लिए बेहद ख़तरनाक है. 
देश खतरे में है, पर अभी भी मनमोहन सरकार के लिए काम कर रही सीबीआई का रुख नहीं बदला है. गुजरात में इशरत जहां और सादिक जमाल के कथित फर्जी एनकाउंटर मसले पर आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेंद्र कुमार को आरोपी बनाए जाने से आईबी पहले ही गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री से नाराज़ बैठी थी, लेकिन जब सीबीआई ने पूछताछ के नाम पर आईबी से हाल ही में सेवानिवृत्त हो चुके स्पेशल डायरेक्टर राजेंद्र कुमार से आईबी के इनक्रिप्टिंग कोड यानी कि कूटनीतिक भाषा के मैन्युअल की पूरी जानकारी हासिल कर ली और उनके बयान को सीआरपीसी की धारा 161 के तहत नोट कर लिया, तब आईबी के अधिकारियों ने दबे-दबे तरीके से ही सही, पर बगावती रुख अपना लिया. इशरत जहां मुठभेड़ का ट्रायल अहमदाबाद के सेशन कोर्ट में सीबीआई की विशेष अदालत में शुरू हो चुका है, जिसकी सुनवाई 10 सितंबर से होनी है. सीआरपीसी की धारा 161 के तहत इस जानकारी के दर्ज होने का मतलब है कि अब राजेंद्र कुमार को कोर्ट में इससे संबंधित बयान भी देने पड़ेंगे और देश का कोई भी नागरिक एक आरटीआई दाखिल कर देश की आतंरिक सुरक्षा से जुड़ी इन बातों को बेहद आसानी से जान सकता है. मसलन, अब तक गुजरात के मुखबिरों ने फील्ड से क्या-क्या सूचनाएं दीं और इस एवज में उन्हें कितना भुगतान किया गया. उन सूचनाओं का इस्तेमाल किस तरह और किसके हक में किया गया. आईबी के काम करने का क्या तरीका है और आईबी के मुखबिरों का नेटवर्क किस तरह फंक्शन करता है. मुखबिर कैसे बनाए जाते हैं और उन मुखबिरों की खातिर सीक्रेट्स फंड में कितने पैसे होते हैं. अपने भेदियों को आईबी किस खबर के लिए कितने पैसे देता है और सरकार से भेदियों के नाम पर कितने पैसे लेता है. सीबीआई का यह कदम आईबी को बेहद नागवार गुजरा है. आईबी अधिकारियों का कहना है कि तफ्तीश के नाम पर सीबीआई की इस हरक़त से उन मुखबिरों की जान भी खतरे में पड़ेगी, जिन्होंने गुजरात राज्य के अलावा दूसरे भी कई महत्वपूर्ण केसों में आईबी को बड़े ही अहम सुराग दिए हैं. चूंकि जब सीबीआई ने आईबी के इनक्रिप्टिंग कोड की डीकोडिंग कर उसे अदालत में पेश करने वाले दस्तावेजों में शामिल कर लिया है, तब ज़ाहिर है कि मामले की सुनवाई के दरम्यान गवाह और साक्ष्य के तौर पर उन मुखबिरों को भी अदालत के कठघरे में बुलवाया जाएगा, जिन्होंने आईबी को इशरत जहां और उसके साथियों के इरादों के बारे में बताया था. ऐसे में मुखबिरों की छवि और पहचान सार्वजनिक हो जाएगी, तब यकीनन ये मुखबिर तो खतरे में होंगे ही, बाद में कोई और मुखबिर भी आईबी के लिए या दूसरी सुरक्षा एजेंसियों के लिए खुफिया सूचनाएं जुटाने का काम करने को तैयार नहीं होगा. यह बात हमारे देश के लिए बहुत ही घातक सिद्ध होगी. पर विडंबना देखिए कि इन दुष्परिणामों के ख्याल से भी इतर, सीबीआई और आईबी के अधिकारी बजाय सूचना जुटाने और केसों की तफ्तीश करने के, एक-दूसरे के अधिकारियों के खिलाफ ख़बरों का डाउसियर तैयार कर रहे हैं. दोनों ही एजेंसियां अब देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ लड़ने की बजाय, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की जंग लड़ रही हैं.
हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देश की ख़ुफ़िया एजेंसी इंटेलीजेंस ब्यूरो से आतंरिक सुरक्षा से संबंधित जानकारियां मिलनी बेहद कम हो चुकी हैं. गृह मंत्रालय को नक्सल, कश्मीर और आतंकवाद से जुड़ी सीक्रेट रिपोर्ट्स नहीं के बराबर मिल रही हैं. मनमोहन सरकार की सियासी चालों से देश की  शीर्ष ख़ुफ़िया एजेंसी के अधिकारियों का मनोबल अब टूट चुका है. देश की दो सबसे अहम इंटेलीजेंस एजेंसीज के एक दूसरे के ख़िलाफ़ हो जाने की ख़बरें छन-छन कर आती रही हैं, लेकिन अब इसके ख़तरनाक नतीजे आने शुरू हो गए हैं. आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी बेहद गोपनीय सूचनाओं  के सार्वजनिक होने की नौबत आ चुकी है.
गृह मंत्रालय के आतंरिक सुरक्षा (आई एस 1 और आई एस 2), नक्सल और कश्मीर डिवीजन के अधिकारियों को इन दिनों आईबी की तरफ से फीडबैक के अलावा और कोई भी मदद नहीं मिल रही है. पहले आईबी के अधिकारी न सिर्फ आतंकवादियों और नक्सलियों को पहचानने, उनकी गतिविधियों और ठिकानों वगैरह के बारे में भी पक्की खबरें देते थे, बल्कि उनकी गिरफ्तारी करवाने में भी मदद करते थे. हालांकि, ऊपरी तौर पर सीबीआई और आईबी के बीच की तकरार थमी-सी दिख रही है. अखबारों में इस आशय की खबरें भी छपवाई गई हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि पिछले दो महीने से न तो उन्हें और न ही गृह मंत्रालय को आईबी की खुफिया चेतावनी रिपोर्ट मिली है, जबकि आईबी का काम है कि हर दिन देश भर की घटनाओं की रिपोर्ट गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में भेजना. इसके अलावा, आईबी अलग से देशभर में उपद्रव, अशांति और आतंकी हमलों की साज़िशों की ख़ुफ़िया रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजती है. इन रिपोर्ट्स के आधार पर गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय राज्य सरकारों और सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क रहने और ज़रूरी एहतियाती क़दम उठाने का निर्देश देता है. अगर आईबी से ये सारी खुफिया जानकारियां न मिलें, तो देश में होने वाली आतंकी साजिशों को नाकाम नहीं किया जा सकता. लिहाज़ा, इन दोनों एजेंसियों के बीच की खटास ने देश की सुरक्षा को खतरे में झोंक दिया है. आईबी कोई भी ख़ुफ़िया सूचना सीधे तौर पर साझा नहीं कर रही है. आतंकी ख़बरों से जु़डी महज़ वे सूचनाएं साझा की जा रही हैं, जो देश की अन्य एजेंसियों के ज़रिये मल्टी एजेंसी सेंटर यानी मैक में आती हैं. किसी भी देश की खुफिया एजेंसी की दुर्दशा इससे ज्यादा और क्या हो सकती है कि उसका निदेशक अपनी एजेंसी के काम की गोपनीयता बनाए रखने के लिए गृह मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री से भी गुहार लगा चुका हो और उसकी कहीं भी सुनवाई न हुई हो. आसिफ इब्राहीम की डीबीआई के पद पर नियुक्ति सरकार ने इस मिथक को तोड़ने के लिए की थी, जिसके तहत सरकार पर ये इल्ज़ाम लगता है कि देश के सर्वोच्च सैन्य और खुफिया पदों पर अल्पसंख्यकों को तैनात नहीं किया जाता, क्योंकि देश की सुरक्षा के मसले पर उन पर भरोसा नहीं किया जाता.
बहरहाल, आईबी के जिस स्पेशल डायरेक्टर राजेंद्र कुमार के ऊपर जो तमाम तोहमते लगीं हैं और उन्हें साबित करने की तैयारी की जा रही है, उस अधिकारी की गिनती आईबी के सबसे कर्मठ अफसरों में होती है. राजेंद्र कुमार का रिकॉर्ड है कि उन्होंने भारत में काम कर रहे कोई 300 पाकिस्तानी जासूसों की शिनाख्त कर उन्हें पकड़वाया है, लेकिन मनमोहन सरकार इस बात से कतई चिंतित नहीं है कि उसकी कारगुजारियों से देश की सुरक्षा खतरे में है, बल्कि उसकी परेशानी यह है कि उसे उन पांच राज्यों की अंदरूनी खुफिया सूचनाएं नहीं मिल पा रही हैं, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इस वज़ह से सरकार अंदाजा नहीं लगा पा रही है कि उन राज्यों में उनकी और उनके विरोधियों की क्या स्थिति है.
दरअसल, यहां इस मसले पर टकराव गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच भी है. गृह मंत्रालय के एक सचिव स्तर के अधिकारी साफ़ कहते हैं कि यह सब कुछ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की खातिर ही किया गया है, क्योंकि वे प्रधानमंत्री पद के मज़बूत उम्मीदवार बन चुके हैं और अधिकारी, राजनीति के शिकार हो रहे हैं. इसके लिए सीबीआई का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है. जब इशरत जहां मुठभेड़ कांड हुआ था, तब इसी गृह मंत्रालय ने मारे गए सभी लोगों को आतंकी घोषित किया था और दूसरे सियासी दलों की इस मांग का सख्त विरोध किया था कि इस मुठभेड़ की सीबीआई जांच कराई जाए. बाद में सीबीआई ने ही यह कहा कि इशरत और उसके साथियों के आतंकवादी होने के पु़ख्ता सुबूत नहीं हैं. अदालत ने इसके बाद ही सीबीआई जांच के आदेश दिए थे.
हालांकि, इस मामले में सीबीआई और आईबी के बीच तनाव और पूर्व स्पेशल डायरेक्टर राजेंद्र कुमार के ख़िलाफ़ सीबीआई की चार्जशीट दायर करने की तैयारियों के बीच नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर शिवशंकर मेनन और पूर्व गृह सचिव आर के सिंह ने सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा और आईबी चीफ़ आसिफ़ इब्राहीम के साथ मिल-बैठकर सुलह-समझौते की कोशिश भी की. इस मीटिंग में यह स्टैंड लिया गया कि आईबी की कैडर कंट्रोलिंग अथॉरिटी होने की वज़ह से बगैर उसकी परमिशन के सीबीआई, आईबी के किसी अधिकारी के खिलाफ चार्जशीट दायर नहीं कर सकती, पर यह महज़ फौरी तौर एक औपचारिक कोशिश भर थी, क्योंकि ये ख़बरें मीडिया की सुर्खियां बन रही थीं और सरकार की किरकिरी हो रही थी. सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा ने आईबी अधिकारियों के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखी और गुजरात पुलिस के अन्य आरोपी अधिकारियों के साथ साथ राजेंद्र कुमार सहित चार आईबी अधिकारियों के खिलाफ भी अहमदाबाद के सीबीआई कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल कर दिया है.
अगर आईबी से खुफिया जानकारियां न मिलें, तो देश में होने वाली आतंकी साजिशों को नाकाम नहीं किया जा सकता. लिहाज़ा, इन दोनों एजेंसियों के बीच की खटास ने देश की सुरक्षा को खतरे में झोंक दिया है.
सीबीआई की नीयत और जांच पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं, क्योंकि इतने विवाद और चर्चा के बाद भी सीबीआई ने इसमें अभी तक दो बातें स्पष्ट नहीं की हैं. पहला कि क्या इशरत और उसके साथियों के संबंध आतंकवादियों से थे? अगर सीबीआई इस बात के जवाब में हां कहती है तो फिर तफ्तीश की आड़ में चल रहे उसके सियासी खेल का खुलासा हो जाएगा और दूसरा कि अगर यह मुठभेड़ फर्जी थी तो इसके पीछे मकसद क्या था? बगैर किसी मकसद के यूं ही अलग-अलग जगहों से लोगों को उठाकर मुठभेड़ के नाम पर क्यों मार दिया गया? अगर सीबीआई मान लेती है कि मुठभेड़ में मारे गए लोगों के संबंध आतंकवादियों से थे, तब आईबी खुद-ब-खुद बरी हो जाएगी और फिर इसका राजनीतिक फ़ायदा नरेंद्र मोदी उठा ले जाएंगे. यह यूपीए सरकार को किसी हाल में मंजूर नहीं होगा.
सवाल यहां यह भी उठता है कि इस कांड की जांच सीबीआई ने एक ऐसे आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा को क्यों सौंपा, जो इशरत जहां की मां द्वारा नामित था, जबकि सतीश वर्मा की नाराजगी आईबी के स्पेशल डायरेक्टर राजेंद्र कुमार से पहले से ही थी. यह बात विभाग में भी सभी उच्चाधिकारियों को मालूम थी कि सतीश वर्मा, राजेंद्र कुमार को बिल्कुल पसंद नहीं करते, जब इशरत जहां मुठभेड़ कांड के जांच की दिशा पूरी तरह आईबी के खिलाफ जाने लगी, तब आईबी के डायरेक्टर ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई. सारी स्थिति का आकलन करने के बाद सीबीआई ने सतीश वर्मा से इस मामले की तफ्तीश वापस ले ली. सतीश वर्मा से जांच कार्य वापस लेने की बात ही यह साबित करती है कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले की जांच सही तरीके से नहीं हो रही थी. आईबी पर लग रहे आरोपों पर संशय की गुंजाइश इसलिए भी बनती है, क्योंकि आईबी का काम सिर्फ सूचनाएं देना ही होता है, न कि उसके आदेश पर राज्य पुलिस काम करती है. अगर यह मान भी लिया जाए कि इशरत को गलत तरीके से मारा गया, तो भी यह बात समझ में नहीं आती कि गुजरात पुलिस को आईबी अधिकारी ने ऐसा करने को कहा होगा, क्योंकि बात फिर वहीं पर आकर अटक जाती है कि मकसद क्या था?
हमारे देश में जांच एजेंसियों के आपसी टकराव का यह कोई पहला मामला नहीं है. पहले भी इनकी परस्पर खींचतान की वजह से देश कई आतंकी हमले झेल चुका है. हिन्दुस्तान में जांच के नाम पर एजेंसियों का मकड़जाल-सा फैला हुआ है. सभी जांच और गुप्तचर एजेंसियों के कार्यक्षेत्र बंटे हुए हैं, पर दुर्भाग्य यह है कि कोई भी जांच एजेंसी विश्‍वसनीयता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती.
हालांकि, हमारे देश में जांच एजेंसियों के आपसी टकराव का यह कोई पहला मामला नहीं है. पहले भी उनकी परस्पर खींचतान के चलते देश कई आतंकी हमले झेल चुका है. हिंदुस्तान में जांच के नाम पर एजेंसियों का मकड़जाल-सा फैला हुआ है. रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ, ज्वॉइंट सिफर ब्यूरो (मिलिट्री इंटेलीजेंस और सिग्नल इंटेलीजेंस के लिए ज़िम्मेदार) नेशनल इन्वेस्टीगेटिव एजेंसी यानी एनआईए, सेंट्रल विजिलेंस कमीशन, डायरेक्टर ऑफ़ रेवेन्यू इंटेलीजेंस, डिफेंस इंटेलीजेंस, डायरेक्टर ऑफ़ एयर इंटेलीजेंस, डायरेक्टर ऑफ़ नेवी इंटेलीजेंस, मिलिट्री इंटेलीजेंस यानी एमआई, डायरेक्टर ऑफ इनकम टैक्स इंटेलीजेंस, राज्यों के आतंकवाद निरोधी दस्ते, राज्यों की स्पेशल टास्क फ़ोर्स, राज्यों की पुलिस अपराध शाखा और  सीबीसीआईडी. हालांकि सभी जांच और गुप्तचर एजेंसियों के कार्यक्षेत्र बंटे हुए हैं, पर दुर्भाग्य यह है कि कोई भी जांच एजेंसी विश्सनीयता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती. जब भी कोई आतंक या भ्रष्टाचार से संबंधित वारदात होती है और कोई एजेंसी उसकी जांच करती है तो उसकी कार्यशैली पर सवाल उठा दिए जाते हैं. सियासी आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं. फिर उसी जांच को दूसरी एजेंसी के हवाले कर दिया जाता है, तो उस मसले से जुड़ी कोई और ही कहानी सामने आ जाती है. नतीजतन, दोनों ही जांच एजेंसियां अपने-अपने दावे पर कायम रहती हैं. खुद के जांच नतीजों को सच करार देती हैं. तब ऐसे में आपसी टकराव पैदा होता है, फिर प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय तक बात पहुंचती है. समाधान के रास्ते तलाशने का दिखावा होता है, पर हासिल कुछ नहीं होता, क्योंकि यहां सब कुछ तो इन्हीं सियासी आकाओं के इशारों पर ही होता है.
लिहाज़ा, जांच और गुप्तचर एजेंसियों का इस्तेमाल अपने हक़ में करके सरकार अपने विपक्षियों और विरोधियों को मात देने में सफल तो हो जाती है, लेकिन उसकी यह चाल अंततः देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए खतरनाक साबित होती है.

- See more at: http://www.chauthiduniya.com/2013/09/%e0%a4%86%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a5%80%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%86%e0%a4%88-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%86%e0%a4%88%e0%a4%ac%e0%a5%80.html#sthash.Fq0zFzot.dpuf

No comments:

Post a Comment