Ruby Arun

Thursday 15 August 2013

राहुल ओबामा बनना चाहते है

राहुल ओबामा बनना चाहते है


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बराक ओबामा ने जब दूसरी बार जीत हासिल कीतो उन्होंने अपने विजयी उद्बोधन में अमेरिकी जनता को संबोधित करते हुए कहा था कि हम अमेरिकी एक परिवार हैं और हमारा एक साथ उत्थान होता है या फिर हम एक साथ गिरते हैं.
अब राहुल गांधी बराक ओबामा के  चमत्कारी शब्द वी कैन का दामन पकड़ चुके  हैं और देश से कहने लगे हैं कि हम कर सकते हैं. यानी कि अब राहुल देश की जनता की उम्मीदों का दूत बनना चाहते हैं
राहुल गांधी या तो नहीं बोलते हैं और अगर कभी बोलते हैंतो ऐसा लगता है कि जैसे वे खुद ही अपनी पोल खोल रहे हों. देश की सत्ताअपरोक्ष ही सहीपर राहुल गांधी की है. वह इस हैसियत में हैं कि देश के लोगों के सवालों का जवाब दे सकें . पर वे किसी बेबस-लाचार व्यक्ति की तरह सवाल करते दिखते हैं. तब सही मायनों में उनकी राजनीतिक समझ शून्य नज़र आती है. वह कॉलेज के युवाओं के साथ मुस्कुराते-हाथ हिलाते टीवी पर तो दिख जाते हैंपर कभी भ्रष्टाचारकश्मीरधर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता-आरक्षण-युवाओं में फैलती निराशादेश की जर्जर प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे मुद्दों पर या हरियाणा की पंचायत द्वारा हत्या किए जाने जैसे मामलों पर बयान देने या टीवी पर बहस करने नहीं आतेफिर भी खुद को हिंदुस्तान के बराक ओबामा के तौर पर देखने की हसरत संजोए बैठे हैं. 
पार्टी और राहुल के  वफ़ादारों से इतरराहुल गांधी की सियासी जद्दोजहद पर हम नज़र डालेंतो भी यह सा़ङ्ग दिखता है कि राहुल किस क़दर ओबामा के  उसूलों और तौर-तरीकों को अपनाने को बेताब हैं. उनकी यह बेसब्री दिल्ली कांग्रेस के दो गुटों को एक करएक नए प्रदेश कांग्रेस की घोषणा और गठन में भी दिखती है.
सभी जानते हैं कि बराक ओबामा ने अपने इलेक्शन कैंपेन में सबसे ज्यादा अहमियत साफगोई और स्पष्टता को दी थी. राहुल भी कुछ वैसा ही अंदाज़ अपना रहे हैं. जिस उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपना पूरा जोर लगा कर भी राहुल पार्टी की अंदरूनी कलह की वज़ह से हार गए थेअब वह वहां के  हालात और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं पर कड़े लहजे में वार करने से नहीं चूकते.

राहुल गांधी, अब राहुल गांधी न रह कर, बराक ओबामा बनना चाहते हैं. हालांकि बराक ओबामा के मुकाबले, राहुल गांधी बेहद औसत दर्जे के नेता हैं. बावजूद इसके, राहुल को यह लगता है कि अगर उन्होंने बराक ओबामा की शैली, उनका अंदाज़ और उनकी भाव-भंगिमा अपना ली, तो वह देश के युवाओं का दिल जीत लेंगे और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का परचम फहरा-लहरा देंगे. लिहाज़ा, राहुल ने मश़क्कत शुरू कर दी है. और इसके लिए राहुल गांधी, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेपुटी कैंपेन मैनेजर और पॉलीटिकल कंसल्टेंट स्टेफनी कटर की पूरी मदद ले रहे हैं. बराक ओबामा को दूसरी बार राष्ट्रपति चुनाव जिताने में कटर के मशविरे की बहुत बड़ी भूमिका रही है. लिहाज़ा, इन दिनों राहुल गांधी के दौरों-यात्राओं और भाषणों की रूपरेखा, कटर के मशविरे के मुताबिक़ ही तैयार की जा रही है. चाहे वह पिछले दिनों सीआईआई में दिया गया राहुल गांधी का भाषण हो, या बेहद आलोचनाओं और कड़ी प्रतिक्रियाओं के  साथ उत्तराखंड के आपदा प्रभावित लोगों के बीच राहुल गांधी का दौरा हो, या फिर विपक्षी पार्टियों के हमलावर तेवरों के दरम्यान  राहुल गांधी की चुप्पी हो. सब कुछ बराक ओबामा की तर्ज़ पर किया जा रहा है, क्योंकि राहुल गांधी, भारत में बिल्कुल उसी तरह खामोश क्रांति के जनक बनना चाहते हैं, जिस तरह ओबामा, अमेरिका में बने.
बराक ओबामा ने जब दूसरी बार जीत हासिल की, तो उन्होंने अपने विजयी उद्बोधन में अमेरिकी जनता को संबोधित करते हुए कहा था कि हम अमेरिकी एक परिवार हैं और हमारा एक साथ उत्थान होता है या फिर हम एक साथ गिरते हैं. एक राष्ट्र, एकजुट लोगों के तौर पर राहुल गांधी भी आजकल इन्हीं जुमलों को दोहरा रहे हैं. वह कहने लगे हैं कि पूरी कांग्रेस पार्टी, एक परिवार की तरह है और सबको मिलजुल कर देश और समाज के विकास के लिए काम करना है. यही नहीं, राहुल गांधी अगले लोकसभा चुनाव में देश पर फतह करने के पहले दिल्ली की गद्दी पर फिर से काबिज़ होने का सपना पहले पूरा करना चाहते हैं. उनकी समझ में कटर का यह मशविरा घर कर चुका है कि देश की राजधानी का फैसला पूरे मुल्क के अवाम के ज़ेहन पर असर डालेगा और अगर कांग्रेस ने राहुल के दिशा-निर्देश में दिल्ली एक बार फिर जीत ली, तो ऐसे में पूरे हिंदुस्तान पर राज करना, उनके लिए मुश्किल नहीं होगा.
यूं तो राहुल ने बराक बनने की कवायद 2009 से ही शुरू कर दी थी, पर उनकी मेहनत रंग लाई इस साल के मार्च महीने में, जब राहुल गांधी के बुलावे पर बराक की सलाहकार स्टेफनी कटर भारत आईं. दिल्ली के गुरुद्वारा रकाब गंज स्थित कांगे्रस पार्टी के वार रूम में इन दोनों की लंबी मुलाक़ात हुई और कटर, राहुल की टीम में अनौपचारिक तरीके से शामिल हो गईं. कटर की सलाह के मुताबिक़, बराक ओबामा के इलेक्शन कैंपेनिंग की तर्ज़ पर ही राहुल गांधी ने क्विक रेस्पॉन्स टीम तैयार की और सोशल मीडिया को कैंपेन का ज़रिया बनाना शुरू किया.
मकसद यह कि संकट या विवाद की स्थिति में राहुल का क्विक रेस्पॉन्स टीम पार्टी की तरफ से, पार्टी की आलोचनाओं और उस पर लग रहे तोहमतों का बेहतरीन और ज़ोरदार जवाब तैयार कर ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल साइट्स के ज़रिये लोगों तक पहुंच सके. राहुल गांधी, बराक ओबामा की ही तरह भारतीय राजनीति को सर्वश्रेष्ठ प्रचार अभियान टीम बनाना चाहते हैं. बराक की सलाहकार कटर के सुझाव पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का फेसबुक अकाउंट बेहद सक्रिय कर दिया गया है. युवा कांग्रेस का मुख पत्र युवा देश भी ट्विटर पर आ चुका है. साइट खिड़की डॉट काम को परिष्कृत कर उसे पार्टी समर्थकों के विचार-विमर्श का फोरम बना दिया गया है.
राहुल ने इस काम के लिए जो सात सदस्यीय टीम तैयार की, उसमें  अहमद पटेल, दिग्विजय सिंह, जनार्दन द्विवेदी, वी नारायणस्वामी, मनीष तिवारी, संदीप दीक्षित और दीपेंद्र हुड्डा शामिल हैं. राहुल को बराक की ट्रिक्स की जानकारियां देने और उन्हें इनमें ट्रेंड करने में राहुल के पुराने गुरु सैम पित्रोदा, राजीव गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्प्ररी स्टडीज के निदेशक डॉ. जी मोहन गोपाल, कैबिनेट मंत्री जयराम रमेश और राहुल के सलाहकार व एमबीए ग्रेजुएट सचिन राव सहित कुछ मैनेजमेंट गुरु भी जी-जान से लगे हुए हैं. यहां तक कि कांग्रेस के ड्राफ्ट एजेंडा 2014 में भी ओबामा पर अध्ययन करना शामिल कर लिया गया है. यही वज़ह है कि सीआईआई में देश के तमाम उद्योगपतियों के सामने दिए गए राहुल के  भाषण के दौरान, राहुल गांधी के हाव-भाव, उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा पर ओबामा की छाप खूब नज़र आ रही थी. अपने पहले के भाषणों में राहुल गांधी हमने किया है, हम करेंगे टाइप के शब्दों का इस्तेमाल करते थे, जिसकी वज़ह से उनकी किरकिरी भी खूब होती थी,  पर अब राहुल गांधी बराक ओबामा के चमत्कारी शब्द वी कैन का दामन पकड़ चुके हैं और देश से कहने लगे हैं कि हम कर सकते हैं. यानी कि अब राहुल देश की जनता की उम्मीदों का दूत बनना चाहते हैं और इस मा़र्ङ्गत अपनी पार्टी और ख़ुद के लिए एक मौक़ा भी. ओबामा की सलाहकार कटर ने राहुल को यह समझा दिया है कि इलेक्ट्रॉनिक ग़ैजेट से लैस आज का शहरी युवा हिंदुस्तान उन्हें भारत का बराक ओबामा ज़रूर बनाएगा. यही कारण है कि इन दिनों उपहास और आलोचनाओं में घिरे होने के बावजूद, राहुल देर-सबेर ही सही, पर पार्टी की ओर से हर समस्या के समाधान के तौर पर खड़े होने लगे हैं. बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह जॉर्ज बुश के शासनकाल में मुश्किलों से जूझ रहे अमेरिका के लिए बराक ओबामा अपने आपको एक उम्मीद की तरह लोगों के सामने रखते थे. हालांकि, भारत और अमेरिका की राजनीतिक परिस्थितियों में न तो समानताएं हैं, न ही सामाजिक हालात एक सरीखे हैं. बावजूद इसके, राहुल गांधी को अब यह लगने लगा है कि वह भारतीय राजनीति में बदलाव के जनक बन सकते हैं और राजनीतिक सुधारों को जन्म दे सकते हैं.
राहुल गांधी इस बात से भली-भांति वाकिफ हैं कि देश का एक बड़ा वर्ग उन्हें राजनीतिक अपरिपक्व समझता है. उनका मज़ाक उड़ाता है और उनकी काबिलियत के तौर पर गांधी उपनाम होना ही जाना जाता है. गरीबों-दलितों के बीच उनके जाने को लेकर तमाम तरह की ओछी बातें कही-सुनी जातीं हैं, फिर भी राहुल अपने सलाहकारों की नीतियों पर अमल करने से गुरेज नहीं करते. शायद इसीलिए वह नेता के चुनाव के मसले पर कहने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान देश को आगे ले जाएगा. अपनी इन बातों और विचारों को जनता तक पहुंचाने का जिम्मा राहुल गांधी ने एकीकृत मीडिया सेल का गठन कर अजय माकन को सौंप दिया है. यह भरोसा भी बिल्कुल उसी तरह का है, जो बराक ने अपने दोस्त और पुराने सहयोगी बाइडन पर दिखाया था.
सभी जानते हैं कि बराक ओबामा ने अपने इलेक्शन कैंपेन में सबसे ज़्यादा अहमियत साफगोई और स्पष्टता को दी थी. राहुल भी कुछ वैसा ही अंदाज़ अपना रहे हैं. जिस उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपना पूरा ज़ोर लगा कर भी राहुल पार्टी की अंदरूनी कलह की वज़ह से हार गए थे, अब वह वहां के हालात और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेताओं पर कड़े लहजे में वार करने से नहीं चूकते. राहुल प्रदेश कांग्रेस के नेताओं की मीटिंग में उन्हें यह कह कर फटकारने लगे हैं कि प्रदेश में इतनी गुटबाज़ी है कि यहां क़रीब 200 मुख्यमंत्री तो सड़कों पर घूमते हैं और प्रतिभाशाली लोगों की जमात इतनी है कि कुछ उनमें अमेरिका के राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बनने की क्षमता रखते हैं.
भारत के पहले पंचायती राज मंत्री और राहुल के पिता राजीव गांधी के निकटतम सहयोगी रहे राज्यसभा सांसद मणिशंकर अय्यर कहते हैं कि विरोधी भले ही राहुल गांधी की इन कोशिशों की हंसी उड़ा लें, पर वे इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि राहुल गांधी ने एक राजनीतिक संगठन के लोकतंत्रिकरण की अद्भुत प्रक्रिया शुरू की. यूथ कांग्रेस में राहुल गांधी ने पूरी तरह से पारदर्शी चयन नीतियों और इंटरव्यूज़ का सहारा लिया. चूंकि राहुल गांधी ख़ुद ही भारतीय राजनीति में परिवारवाद के प्रतीक हैं, लिहाज़ा उन्होंने राजनीतिक सुधार की यह पहल की. लगभग पांच हज़ार सांसद-विधायक देश के भाग्य का फैसला कर रहे हैं और उन पांच हज़ार लोगों का चुनाव, बमुश्किल दो सौ लोग कर रहे हैं. मतलब यह कि अपरोक्ष रूप से ये दो सौ लोग ही हैं, जो देश को चला रहे हैं. राहुल इसी अपारदर्शी राजनीतिक प्रक्रिया को ख़त्म करने की कोशिश में हैं. राहुल गांधी की इस मुहिम का नतीजा आने में वक़्त लग सकता है, पर उनका यह क़दम उतना ही क्रांतिकारी साबित होगा, जितना कि उनके पिता राजीव गांधी के पंचायती राज का क़दम. इसलिए, यह कहना ग़लत होगा कि राहुल गांधी दिशाहीन हैं या उन्हें राजनीति की समझ नहीं है. हां, यह ज़रूर है कि अभी उन्हें परखा नहीं गया है.
बहरहाल, पार्टी और राहुल के वफादारों से इतर, राहुल गांधी की सियासी ज़द्दोज़हद पर हम नज़र डालें, तो भी यह सा़ङ्ग दिखता है कि राहुल किस क़दर ओबामा के उसूलों और तौर-तरीक़ों को अपनाने को बेताब हैं. उनकी यह बेसब्री दिल्ली कांग्रेस के दो गुटों को एक कर, एक नए प्रदेश कांग्रेस की घोषणा और गठन में भी दिखती है. जिस तरह बराक ओबामा ने अपने नए और पुराने साथियों के साथ मिल कर अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव दूसरी बार जीता और फिर उन सभी नए-पुराने साथियों का सार्वजनिक तौर पर आभार व्यक्त किया, राहुल भी कुछ वैसा ही करने की जुगत में दिख रहे हैं. उन्होंने दिल्ली प्रदेश कमिटी में नये और पुराने चेहरों को मिलाकर एक नई टीम खड़ी की है. खास तौर पर बिहार के मुस्लिम नेता शकील अहमद को प्रदेश कमिटी का प्रभारी बना कर, दिल्ली में रहने वाले मुस्लिमों और पूर्वांचलवासियों को कांग्रेस के साथ समायोजित करने की कोशिश की है. पर मसला यह है कि राहुल गांधी की ये तमाम कोशिशें भी उनके  कहने और करने का फर्क नहीं मिटा पा रही हैं. उनकी सभी मश़क्कतों के बाद भी देश का एक बड़ा युवा वर्ग बराक ओबामा की तरह उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं है. यहां तक कि कांग्रेस का आम कार्यकर्ता और उनसे उम्मीद रखने वालों की जमात में आने वाला एक आम हिन्दुस्तानी भी राहुल से बेहद निराश है, क्योंकि बेशुमार मौके मिलने के बाद भी राहुलआज तक ऐसा कुछ सार्थक नहीं कर पाए, जो उन पर भरोसा जगा सके. राहुल बात तो पारदर्शिता की करते हैं, पर जब बारी अमलीजामा पहनाने की आती है, तब राहुल चूक जाते हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जीतेंद्र सिंह,  सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा या सलाहकार कनिष्क सिंह, राहुल गांधी के भरोसेमंद महज़ इसलिए बन सके, क्योंकि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि रही है.
सैम पित्रोदा, जयराम रमेश और कटर के सहयोग के बाद भी राहुल गांधी का भाषण आश्‍वस्त नहीं कर पाता, न ही कोई दूर-अंदेशी उम्मीद ही जगा पाता है. राहुल को अभी तक देश ने किसी भी मसले पर त्वरित प्रतिक्रिया देते नहीं सुना है, न ही किसी मुद्दे पर उनका विश्‍लेषणात्मक रुख ही देखा गया है. राहुल मीडिया से हमेशा नज़रें चुराते नज़र आते हैं. बराक जिस तरह आज भी एक आम अमेरिकी के साथ घुल-मिल कर बातें करते हैं, सार्वजानिक कार्यक्रमों में नज़र आते हैं, राहुल उतनी ही ज़्यादा गोपनीयता बरतते हैं. वह संसद में कभी-कभार अपना मुंह खोलते तो हैं, पर कभी भी किसी नीतिगत ढांचे का उल्लेख नहीं करते. देश अभी जिन मौजूदा समस्याओं से जूझ रहा है, उनके समाधान की बातें नहीं करते, बल्कि अपनी सतही बातों को लेकर वह मज़ाक के पात्र बन जाते हैं. ज़ाहिर है कि इन हालातों में राहुल गांधी के लिए बराक ओबामा जैसा बनना एक ख़ूबसूरत सुनहरा ख्वाब तो हो सकता है, पर हक़ीक़त में वह तब्दील नहीं हो सकता
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