रोटी के नाम पर धोखा |
गरीबों का पेट भर सकने वाले राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल में तमाम विसंगतियां हैं, जो भारत की ग़रीब जनता के हित में नहीं है. महिला बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं कल्याण मंत्रालय और कृषि एवं खाद्य मंत्रालय भूख और ग़रीबी के उन्मूलन के लिए कुल 25 योजनाएं चला रहे हैं, लेकिन हक़ीक़त में इन योजनाओं का नतीजा कहीं देखने को नहीं मिल रहा है. महज़ काग़ज़ी आंकड़ों के आधार पर ही भूख से लड़ने की बात कही जा रही है. सरकार की योजना के मुताबिक़, अगले तीन महीने में इस बिल को कैबिनेट की मंज़ूरी मिल जाएगी. और तब, इसे संसद में पेश कर आम आदमी को भोजन का अधिकार देने की अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि पर शायद सरकार फूली न समाए, पर क्या सचमुच इस बिल से ख़ुशहाली आ जाएगी?
भारत की सबसे बड़ी अदालत भूख, बेरोज़गारी, सामाजिक असुरक्षा और कुपोषण से जुड़े मामलों की एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए अभी तक 65 से ज़्यादा ऐसे आदेश दे चुकी है, जो भारत सरकार को उसके कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए मजबूर करते हैं. इसके अलावा अदालत ने सरकार को ज़्यादा बजट आवंटन का भी आदेश दे रखा है. सरकार ने अभी तक अदालती आदेशों का पालन करने की दिशा में तत्परता से क़दम नहीं बढ़ाया है. अलबत्ता वह पिछले कई सालों से लटके खाद्य सुरक्षा बिल को क़ानून बनाने की दिशा में सक्रिय हो उठी है.
भारत की सबसे बड़ी अदालत भूख, बेरोज़गारी, सामाजिक असुरक्षा और कुपोषण से जुड़े मामलों की एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए अभी तक 65 से ज़्यादा ऐसे आदेश दे चुकी है, जो भारत सरकार को उसके कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए मजबूर करते हैं. इसके अलावा अदालत ने सरकार को ज़्यादा बजट आवंटन का भी आदेश दे रखा है. सरकार ने अभी तक अदालती आदेशों का पालन करने की दिशा में तत्परता से क़दम नहीं बढ़ाया है. अलबत्ता वह पिछले कई सालों से लटके खाद्य सुरक्षा बिल को क़ानून बनाने की दिशा में सक्रिय हो उठी है. सवाल फिर वही उठता है कि क्या सरकार सचमुच देश से भूख और ग़रीबी दूर करना चाहती है या फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के चाबुक से बचने के लिए वह क़ानून बनाने का ढोंग कर रही है. सवाल इसलिए भी कि खाद्य सुरक्षा के दायरे में मध्यान्ह भोजन और आंगनवाड़ी योजनाएं भी आती हैं, पर सरकार इन्हें क़ानूनी दायरे से बाहर रखने की जुगत में लगी है, ताकि इसमें निजी क्षेत्र निवेश कर सकें और सरकार अनुदान देने एवं दान लेने के खेल से अरबों का वारा-न्यारा कर सके. सरकार की नीयत इससे भी समझी जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही खाद्य सुरक्षा के अनेक अधिकारों को अपने आदेशों के ज़रिए सुनिश्चित किया है. इनमें हर परिवार को 35 किलो राशन के अलावा अंत्योदय अन्न योजना के तहत और भी सस्ता राशन, जननी सुरक्षा योजना, मातृत्व सुरक्षा योजना, आईसीडीएस के तहत शिशुओं एवं बच्चों के लिए पूरक पोषण आहार और अकेली औरतों, बेघर एवं छह वर्ष तक के बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने का अधिकार शामिल है. सरकार की मंशा पर संदेह इसलिए भी है, क्योंकि यह बिल प्राथमिकताओं में शामिल होने के बाद भी कई सालों से लटका पड़ा था. लेकिन, जैसे ही इन अधिकारों का विस्तार करने वाली अदालत द्वारा गठित वाधवा समिति ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल की, सरकार ने भी खाद्य सुरक्षा संबंधी अपना मसौदा जारी कर दिया.
सरकार के इस क़दम से खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञों में बेहद क्षोभ है, क्योंकि वे इस विधेयक को अधूरा मानते हैं. सीपीआई नेता, खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ एवं सामाजिक कार्यकर्ता अतुल अंजान कहते हैं कि मौजूदा विधेयक के क़ानून बनने से देश के ग़रीबों और भुखमरी के शिकार लोगों पर दोहरी मार पड़ेगी. मसौदा यह कहता है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना का लाभ केवल उन्हें मिलेगा, जिन्हें केंद्र सरकार ग़रीब मानेगी. भारत सरकार केवल छह करोड़ लोगों को ग़रीब मानती है, जबकि योजनाओं का क्रियान्वयन करने वाली राज्य सरकारें ग्यारह करोड़ लोगों को ग़रीब मानती हैं. मसौदे के मुताबिक़, राज्य सरकारों द्वारा पहचाने गए ग़रीबों की इस योजना में कोई जगह नहीं है. मतलब यह कि लगभग पांच करोड़ ग़रीबों को पहले ही दरकिनार कर दिया जा रहा है. उस पर भी तुर्रा यह कि देश की आबादी और उसमें भी ग़रीबों की संख्या का सही आंकड़ा सरकार के पास मौजूद नहीं है. जनगणना होनी है अभी. उसमें भी जातिगत आधार पर कई पेंच हैं. वाधवा समिति की रिपोर्ट कहती है कि देश के पचास करोड़ लोग ग़रीबों में गिने जाएंगे. वर्ष 2010-11 में भारत सरकार ने ग़रीबी से जूझने के लिए एक लाख अट्ठारह हज़ार पांच सौ पैंतीस करोड़ रुपये का बजट रखा है. उसमें बयासी हज़ार एक सौ करोड़ रुपये और जोड़ने की ज़रूरत है.
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के जानकार अर्जुन सेन गुप्ता कहते हैं कि देश के 77 करोड़ लोग महज़ 20 रुपये प्रतिदिन पर गुज़र-बसर करते हैं. 84 करोड़ लोगों को पर्याप्त पोषण वाला भोजन नहीं मिल पाता. ज़ाहिर है कि 75 से 80 ़फीसदी जनसंख्या भूख और ग़रीबी के साथ जी रही है. सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़, देश की 37 करोड़ आबादी की हालत इतनी दयनीय है कि उसके लिए अलग से ख़ास प्रावधानों की ज़रूरत है. साथ ही भुखमरी और ग़रीबी को लेकर अलग-अलग योजनाएं तैयार करने की ज़रूरत है. इस बिल में एक और ज़बरदस्त खामी है. इसके मसौदे में पोषण जैसे बेहद अहम मुद्दे को कहीं जगह नहीं दी गई है. पहले तो इस मसौदे में यह प्रावधान था कि प्रत्येक बीपीएल परिवार को हर महीने तीन रुपये किलो की दर से 25 किलो अनाज मिला करेगा. सरकार के इस मसौदे पर विपक्षी पार्टियों ने बेहद बावेला मचाया. तब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह गुज़ारिश की कि बीपीएल परिवारों के लिए शुरू की जा रही इस योजना के मसौदे में बदलाव करते हुए प्रति महीने दिए जाने वाले अनाज को 25 से 35 किलो कर दिया जाए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी सदाशयता दिखाई और तुरंत उनके अनुरोध पर मुहर लगा दी. लिहाज़ा अब एक परिवार को महीने में 35 किलो अनाज़ मिला करेगा और वह भी तीन रुपये किलो की दर से. जबकि न्यूनतम ज़रूरतों के आधार पर भी देखा जाए तो चार सदस्यों के एक परिवार को महीने में कम से कम 56 किलो अनाज, पांच किलो दाल और चार किलो खाद्य तेलों की ज़रूरत है. एक ऐसे देश में, जहां पहले ही वसा और प्रोटीन की कमी से बहुत बड़ी आबादी कुपोषण से जूझ रही है, वहां इस तरह का मसौदा भूख से लड़ रहे लोगों को मौत की ओर ढकेलने का सबब बन सकता है.
खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ उत्सा पटेल कहते हैं कि देश की 84 करोड़ जनता के कुपोषित होने का मतलब देश का कुपोषित होना है. बच्चों के कुपोषित होने का आंकड़ा तो और भी भयावह है. कुल 46 ़फीसदी बच्चे कुपोषित हैं, जो दक्षिण अफ्रीका के सहारा से भी दोगुना है. भारत में मातृत्व मृत्यु दर पचास प्रतिशत है. दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों का चालीस प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है, जिसकी वजह कुपोषण है. सरकार को चाहिए कि लाभार्थियों की संख्या कम करने की जगह सकल सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की आवश्यकता है. चिंता का सबब यह भी है कि नए मसौदे में अब जो परिवार ग़रीबों में भी ग़रीब हैं, उन्हें अब दो रुपये प्रति किलो की जगह तीन रुपये प्रति किलो क़ीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा किसान मोर्चा के अध्यक्ष विनोद पांडे कहते हैं कि क्यों नहीं भारत सरकार ब्राजील की तरह भोजन के अधिकार को हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार बनाती है. ग़रीबी रेखा और उसके नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के योजना आयोग के अनुमानों को लेकर पहले भी बहुत विवाद हुआ है, फिर भी बीपीएल परिवारों की संख्या निर्धारित करने का अधिकार योजना आयोग के ही पास है. उदाहरण के तौर पर अगर बिहार की ही बात की जाए, तो राज्य सरकार के मुताबिक़ वहां बीपीएल परिवारों की संख्या 1.40 करोड़ है, पर केंद्र सरकार वहां महज़ 65.23 लाख बीपीएल परिवारों के वजूद को ही मानती है. मतलब अगर नया खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू होता है तो बिहार के लगभग 75 लाख परिवार खाद्य असुरक्षा के घेरे में आ जाएंगे. मसौदे में इस बात का साफ ज़िक्र है कि केंद्र सरकार द्वारा तय की गई संख्या से अगर ज़्यादा संख्या बीपीएल परिवारों की हुई तो उसका ख़र्च राज्य सरकारों को ही उठाना पड़ेगा. और, फिलहाल राज्य सरकारों की जो आर्थिक स्थिति है, उसमें यह मुमकिन नहीं लग रहा. इस मसौदे और केंद्र सरकार के रुख़ से अधिकांश राज्य सरकारें भी चिंतित हैं. राज्य सरकारों को इस बात का डर है कि केंद्र सरकार भोजन के अधिकार का अधूरा क़ानून बनाकर भी सियासी फायदा उठा ले जाएगी और जब राज्य सरकारें इस क़ानून को सफलता से लागू नहीं कर पाएंगी, तब लोगों की नाराज़गी और असफलता उनके हिस्से आएगी. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के ज़रिए अपनी ही जनता को भूखा मारने की योजना पर काम कर रही है तो ग़लत नहीं होगा
No comments:
Post a Comment