Ruby Arun

Sunday 20 November 2011

आतंकवाद से लड़ने वाली सबसे बड़ी एजेंसी : एन आई ए का सच By Ruby Arun


आतंकवाद से लड़ने वाली सबसे बड़ी एजेंसी : एन आई ए का सच


गृहमंत्री पी चिदंबरम ने नॉर्थ ब्लॉक में बैठे बाबुओं और नौकरशाहों को ज़रिया बनाकर देश की आंतरिक सुरक्षा को भी सियासत का खेल बना दिया है. आप इसकी त्रासद बानगी देखना चाहें तो एनआईए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी पर नज़र डालें. देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता को आतंकवादियों से बचाए-बनाए रखने के लिए गठित की गई राष्ट्रीय सुरक्षा जांच एजेंसी का वजूद गृहमंत्री पी चिदंबरम के सियासी दांव-पेंच और देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति लापरवाह नज़रिए का शिकार बन चुका है. गठन के तीन सालों बाद भी एनआईए के पास न तो अपनी कोई पुख्ता टीम है, न बैठने और कामकाज करने का कोई स्थायी ठिकाना. लिहाज़ा, मुंबई पर हुए 26/11 के हमले के बाद देश से आतंकवाद का स़फाया करने की नीयत से बनाई गई राष्ट्रीय जांच एजेंसी दर-बदर है और सरकार एवं उसके ताक़तवर मंत्री हिंदुस्तान की अस्मिता बचाने की कोशिश के बजाय अन्ना हजारे, बाबा रामदेव एवं अरविंद केजरीवाल को निपटाने तथा हिंदू संगठनों को आतंकवादी साबित करने की जुगत में हैं.
आतंकवाद से लड़ने के लिए देश में सबसे बड़ी जांच एजेंसी तो बना दी गई है, पर उसे भी सियासत के एक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. 33 महीनों बाद भी एनआईए को एक ठिकाना तक नहीं मिल सका है. वह आतंकियों का ठौर-ठिकाना लेने के बजाय राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की खोज-खबर लेने में लगी हुई है. मतलब यह कि सरकार के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हाशिए पर है.
जिस एजेंसी का गठन अमेरिका की सबसे अधिकार संपन्न जांच एजेंसी एफबीआई की तर्ज़ पर इसलिए किया गया था, ताकि वह स्वतंत्र तरीक़े से अपने असीमित अधिकारों के साथ देश से आतंक की जड़ का समूल नाश कर सके , उसके निदेशक को आज तक यही नहीं मालूम कि एनआईए का कार्यक्षेत्र क्या है और उसे किस दिशा में आतंकी मामलों की तफ्तीश करनी है. दुर्भाग्यपूर्ण यह भी कि एनआईए के गठन का प्रस्ताव रखने वाले और उसके पुरज़ोर हिमायती गृहमंत्री पी चिदंबरम आज तक यह भी तय नहीं कर पाए कि आतंकी मामलों की जांच में एनआईए की भूमिका क्या होगी? हम ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहे हैं कि जनाब पी चिदंबरम कुछ भी नहीं कर रहे. उन्होंने देश की आंतरिक सुरक्षा पुख्ता करने के नाम पर एनआईए, आईबी और रॉ जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियों को इकोनॉमिकल क्राइम्स सुलझाने में लगा दिया है, ताकि वे वक़्त-बेव़क्त वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को यह कहते हुए कठघरे में खड़ा कर सकें कि उनका मंत्रालय हवाला और मनी लांड्रिंग के ज़रिए भारत आने वाले पैसों को नहीं रोक पा रहा है. यही पैसा भारत में ग़दर मचाने वाले आतंकी संगठनों को मज़बूत कर रहा है. आएदिन गृहमंत्री और प्रधानमंत्री यह बयान देते हुए सुने जाते हैं कि अगर आतंकवाद को खत्म करना है तो सबसे पहले उसके आर्थिक स्रोतों की कमर तोड़नी होगी. बहरहाल, इन लफ्फाजियों के दरम्यान गृह मंत्रालय खानापूर्ति भी करता रहा.
देश की इस टॉप एजेंसी के अधिकारी, जो मुंबई ब्लास्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट सहित कई आतंकी घटनाओं की जांच कर रहे हैं, उनकी जान खुद ही ज़ोखिम में है. देश की सबसे गोपनीय जांच एजेंसी को उसके गठन के 33 महीनों बाद भी गृह मंत्रालय ने बीच बाज़ार में बैठा रखा है.
मुंबई धमाकों के बाद से आज तक यानी लगभग तीन सालों में गृह मंत्रालय के अंदर कुल आठ बार इस मसले पर नोटिंग-ड्राफ्टिंग हुई कि देश की अंदरूनी सुरक्षा को कायम रखने के लिए एनआईए के पास एक ऐसी विशेष टीम होनी चाहिए, जिसमें किसी भी अधिकारी का ट्रांसफर-पोस्टिंग न हो. जो भी अधिकारी-कर्मचारी इस विशेष टीम का सदस्य हो, वह देश की आंतरिक सुरक्षा के मसलों से सीधा और गहरा जुड़ा हो, ताकि ज़िम्मेदारी भी उसी की हो और दोषी भी वही हो. एनआईए का अलग स्वतंत्र फंड हो, सब-इंस्पेक्टर से ऊपर के सभी अधिकारियों के पास जांच के लिए स्पेशल पावर हो, ताकि विशेष स्थितियों में उसे अपने ऊपर के अधिकारियों के आदेश का इंतज़ार न करना पड़े. आतंकी मामलों की जांच में समय सीमा बाधा  न बने, इसके लिए एनआईए को 90 दिनों के बजाय 180 दिनों तक आरोपियों को हिरासत में रखने का अधिकार हो. एनआईए के खुद के वकील और अपनी अदालतें हों, ताकि देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़े किसी भी मामले की त्वरित सुनवाई और फैसला हो सके . इन सभी प्रावधानों में से किसी एक पर भी क़ायदे से कार्रवाई करने या आंतरिक सुरक्षा के लिए विशेष टीम बनाने की ज़हमत तो गृहमंत्री ने नहीं उठाई, पर हां…मुंबई ब्लास्ट के बाद नॉर्थ ब्लॉक में बैठने वाले और आंतरिक सुरक्षा के मसलों से जुड़े तक़रीबन दो दर्ज़न वरिष्ठ अधिकारियों के विभाग ज़रूर बदल दिए.
जिस एजेंसी का गठन अमेरिका की सबसे अधिकार संपन्न जांच एजेंसी एफबीआई की तर्ज़ पर इसलिए किया गया था, ताकि वह स्वतंत्र तरीक़े से अपने असीमित अधिकारों के साथ देश से आतंक की जड़ का समूल नाश कर सके , उसके निदेशक को आज तक यही नहीं मालूम कि एनआईए का कार्यक्षेत्र क्या है और उसे किस दिशा में आतंकी मामलों की तफ्तीश करनी है.
लेकिन, आतंकवाद का खात्मा करने के प्रति चिदंबरम एवं प्रधानमंत्री कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा आप महज़ इस बात से लगा सकते हैं कि देश की इस टॉप एजेंसी के अधिकारी, जो मुंबई ब्लास्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ब्लास्ट सहित कई आतंकी घटनाओं की जांच कर रहे हैं, उनकी जान खुद ही ज़ोखिम में है. देश की सबसे गोपनीय जांच एजेंसी को उसके गठन के 33 महीनों बाद भी गृह मंत्रालय ने बीच बाज़ार में बैठा रखा है. दिल्ली के जसोला डिस्ट्रिक्ट के स्प्लेंडर मॉल की चौथी और पांचवीं मंजिल पर एनआईए का दफ्तर है, जहां दो सौ पचास अधिकारी-कर्मचारी शीशे की दीवारों के बीच बैठते हैं. पचास लाख रुपये महीने इसका किराया दिया जाता है. दफ्तर के नीचे फास्ट फूड और कैफे काफी डे के आउटलेट्स हैं, एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंक की शाखाएं हैं, पोर्श का ऑफिस है. मतलब यह कि दिन भर वहां हर किस्म के लोगों का जमावड़ा लगा रहता है. रात आठ बजे के बाद वहां का एल्वेटर काम नहीं करता. चौथी-पांचवीं मंजिल की दूरी सीढ़ियों से तय करनी पड़ती है. रात के आठ बजते ही तीन-चार घंटों के लिए बिजली चली जाती है. दफ्तर का जेनरेटर ज़रूरत के मुताबिक़ लोड नहीं उठा पाता. एनआईए का यह दफ्तर ऐसी जगह पर है, जहां ट्रैफिक की भयावह समस्या है. हालत यह है कि नॉर्थ ब्लॉक या मुख्य दिल्ली आने के नाम से ही अधिकारियों के हाथ-पैर ठंडे हो जाते हैं. रिमांड पर लिए गए आरोपियों की सुरक्षा के इंतजाम की बात भी इस दफ्तर में सोचना हास्यास्पद है. यहां के अधिकारी साफ़ तौर पर कहते हैं कि पूरा महकमा जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. आ़खिरकार, एनआईए के अधिकारी जब चिदंबरम से गुहार लगा-लगाकर थक गए तो उन्होंने खुद ही कोशिश शुरू कर दी. एनआईए के अधिकारी पिछले साल भर से सीजीओ कॉम्प्लेक्स में दफ्तर लेने के लिए जूते घिसते रहे, मगर उन्हें कामयाबी नहीं मिली. अब जंतर-मंतर के पास बने एनडीएमसी मुख्यालय भवन के एनडीसीसी फेज-दो की छठी और सातवीं मंजिल एनआईए को देने का फैसला कर एनडीएमसी ने आवंटन पत्र तो दे दिया, पर वहां भी अड़ंगे. कॉरपोरेशन अब यह कह रहा है कि पर्यटन मंत्रालय ने इसके लिए पहले ही आवेदन दे दिया था. जब तक पर्यटन मंत्रालय अपना आवेदन वापस नहीं लेता, तब तक एनआईए को यह दो मंजिलें नहीं दी जा सकतीं.
किसी भी जांच एजेंसी की रीढ़ की हड्डी या उसका आधार उसका मज़बूत खुफिया नेटवर्क होता है, लेकिन एनआईए के पास न तो अपना कोई एक्टिव इंटेलिजेंस है और न उसे अन्य सरकारी खुफिया एजेंसियों से समय पर सूचनाएं ही मिल पाती हैं.
पर वस्तुत: हुआ क्या? आतंकवाद को मिटाने का राग अलापने और कोरे आश्वासन देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके लाडले गृहमंत्री ने किया क्या? सरकार की काहिली और बदमिजाजी का यह आलम तब है, जबकि पिछले सात सालों में 27 धमाकों में सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है और हज़ारों घायल. उस पर तुर्रा यह कि मनमोहन सिंह सरकार के वरिष्ठ मंत्री सुबोधकांत सहाय बड़ी बेजारी से यह फरमाते हैं कि लोग अब इन धमाकों के आदी हो चुके हैं. गृहमंत्री की लालफीताशाही ने देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. उदाहरण देखिए, भारत की आंतरिक सुरक्षा को देख रहे वरिष्ठ आईएएस यू के बंसल के पास अपनी कोई स्थायी टीम नहीं है. ज़ाहिर है कि गृहमंत्री के लिए प्राथमिकता देश की आंतरिक सुरक्षा नहीं है. चलिए, पी चिदंबरम के मनमौजीपन की फेहरिस्त आगे बढ़ाते हैं. किसी भी जांच एजेंसी की रीढ़ की हड्डी या उसका आधार उसका मज़बूत खुफिया नेटवर्क होता है, लेकिन एनआईए के पास न तो अपना कोई एक्टिव इंटेलिजेंस है और न उसे अन्य सरकारी खु़फिया एजेंसियों से समय पर सूचनाएं ही मिल पाती हैं. जबकि एनआईए के गठन के समय जब चिदंबरम साहब ने प्रस्ताव रखा था और संसद से वह प्रस्ताव पारित हुआ था, तब साफ़ तौर पर इस बात पर खास ज़ोर दिया गया था कि इस एजेंसी में देश भर के सबसे उम्दा आईपीएस अफसरों की बहाली होगी और उन्हें देश के विभिन्न राज्यों से चुनकर लाया जाएगा, पर हमारे गृहमंत्री को अपने ही प्रस्तावित और पास किए गए प्रावधान याद नहीं रहे. उन्होंने यहां भी सियासी गोटियां फिट कर दीं. इसमें अलग-अलग राज्यों से खासकर विपक्षी पार्टियों द्वारा शासित प्रदेशों से ऐसे-ऐसे अधिकारियों को चुनकर लाया गया, जिनसे या तो वहां के मुख्यमंत्री ख़फा थे या फिर जो शासन विरोधी कामों में लिप्त थे. मुद्दा महज़ इतना भी होता तो ज़्यादा फिक्र की बात नहीं थी, पर दुर्भाग्य यह है कि इनमें से ज़्यादातर ऐसे अधिकारी हैं, जिनकी पोस्टिंग कभी भी आतंकवाद ग्रस्त इलाक़ों में नहीं रही. एनआईए में आने के बाद भी इन अधिकारियों की न तो स्पेशल प्रोफेशनल ट्रेनिंग हुई और न इन्हें सुपर कॉप किस्म की कोई टीम ही मुहैया कराई गई है. इंटेलिजेंस गैदरिंग के नाम पर तो ये हैं ही खाली हाथ.
पिछले छह वर्षों में आतंकवादियों ने दिल्ली को पांच बार निशाना बनाया, जबकि देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई को 1993 के बाद से 14 बार निशाना बनाया गया. गृह मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के मसलों से जुड़े हैं, कहते हैं कि दरअसल, चिदंबरम साहब ने गृह मंत्रालय के अधिकारियों की सारी ऊर्जा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में लगा दी है. जहां योजनाएं बननी चाहिए थीं, नीतियों पर कार्यान्वयन होना चाहिए था, वहां दूसरे मंत्रालयों को पत्र लिखने में समय बर्बाद किया जा रहा है.
गृहमंत्री की बाबूगिरी यहीं खत्म नहीं होती. उनके इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये का असर किस खौ़फनाक तरीके से मुल्क को खतरे में डाल रहा है. यह भी देखिए ज़रा. घोषणा तो यह की गई कि एनआईए पूरी तरह से स्वायत्त एजेंसी होगी, इसके कार्यक्षेत्र में किसी का भी दखल नहीं होगा, लेकिन जब कोई वारदात होती है और एनआईए की टीम वहां जांच के लिए पहुंचती है तो वहां पहले से ही स्थानीय पुलिस, एनएसजी के अधिकारी अपने-अपने कार्यक्षेत्र का हवाला देकर मामले के अनुसंधान में अपनी क़ाबिलियत दिखा रहे होते हैं. जब दिल्ली हाईकोर्ट में बम ब्लास्ट हुआ, तब भी यही असमंजस के हालात थे. घटना के बाद जब एनआईए की टीम डायरेक्टर एस सी सिन्हा की अगुवाई में दिल्ली हाईकोर्ट पहुंची तो उन्होंने बयानबाजी शुरू कर दी, लेकिन उन्होंने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया कि जांच जब सामूहिक है तो एनआईए की भूमिका इसमें क्या होगी? दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने कहा कि जांच सामूहिक तौर पर हो रही है. अब ऐसे हालात में एनआईए, एनएसजी, दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच, सीएफएसएल टीम और गृह मंत्रालय जांच में बराबर के साझीदार हुए, तो फिर जब जांच रिपोर्ट बनेगी तो वह किसके पास जाएगी? हरेक के जांच करने, तहकीकात करने का तरीका अलग होगा तो फिर उस पर आ़खिरी फैसला किसका होगा? ज़ाहिर है, यहां देश के गृहमंत्री होने के नाते पी चिदंबरम की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. या तो वह सबकी ज़िम्मेदारियां निर्धारित करें या फिर खुद इस सामूहिकता में शामिल होकर फैसले लें, पर शायद वह ऐसा नहीं मानते. तभी तो गृहमंत्री बनने के बाद से आज तक उन्होंने एक बार भी इन सभी विभागों के साथ मिलकर कोई बैठक नहीं की. नतीजतन, दिल्ली पुलिस के पास 13 सितंबर, 2008 के तीन बम विस्फोटों की जांच अभी भी अधूरी है. एनआईए की अगुवाई में मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट का मामला आज भी कई सवालों के दायरे में है.
हालांकि विवादों के बाद अब हाईकोर्ट ब्लास्ट की तफ्तीश एनआईए कर रही है, पर इससे दिल्ली पुलिस आहत है. मतलब यह कि अपने ही अधीन आने वाले विभागों में भी चिदंबरम समायोजन नहीं बैठा पा रहे हैं. यह आंकड़ा चौंकाने के साथ दु:खद भी है कि पिछले छह वर्षों में आतंकवादियों ने दिल्ली को पांच बार निशाना बनाया, जबकि देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई को 1993 के बाद से 14 बार निशाना बनाया गया. गृह मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के मसलों से जुड़े हैं, कहते हैं कि दरअसल, चिदंबरम साहब ने गृह मंत्रालय के अधिकारियों की सारी ऊर्जा अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में लगा दी है. जहां योजनाएं बननी चाहिए थीं, नीतियों पर कार्यान्वयन होना चाहिए था, वहां दूसरे मंत्रालयों को पत्र लिखने में समय बर्बाद किया जा रहा है. ख़ुफ़िया एजेंसियों की गुप्तचर शाखा का इस्तेमाल आतंकी और देश विरोधी गतिविधियों की जानकारी जुटाने में नहीं, बल्कि विपक्षी और अपनी भी पार्टी के नेताओं की अंदरूनी जानकारी जुटाने में किया जा रहा है. एनआईए भी इन्हीं कारगुजारियों का शिकार बन चुकी है. यही कारण है कि 26/11 के बाद से लेकर अब तक इसने किसी भी केस को उसके मुकाम तक नहीं पहुंचाया है. ऐसे में हम देश को सुरक्षित रखने और आतंकवाद के खात्मे का सपना नहीं देख सकते.

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