इस तस्वीर को संभाल कर रखिए, बहुत काम आएगी...
“आने वाले दिनों में जब भारत, इंडिया से सवाल पूछ रहा होगा, तब ये देखना जरूरी होगा कि कौन किसके साथ था, किसके खिलाफ था..“
2013 की बात है. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सजा का एलान होते ही मौजूदा सांसदों/विधायकों की सदस्यता समाप्त हो जाएगी. इस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए यूपीए-2 की सरकार एक अध्यादेश ले कर आई. तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस क्लब में एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए अपनी ही सरकार के निर्णय का विरोध किया और उस अध्यादेश को फाड कर फेंकने का सुझाव दिया. नतीजा, लालू हो या कांग्रेस के ही एक सांसद, सबकी सदस्यता गई, जेल गए. लेकिन, मीडिया की नजर में, आपकी नजर में राहुल गान्धी की छवि “पप्पू” की बनी रही.
जरा सोच कर देखिए, आज भाजपा में कोई एक ऐसा कद्दावर नेता हो, जो नरेंद्र मोदी सरकार की किसी उल-जलूल नीतियों/घोषणाओं की भर्त्सना कर सकें. जो ये कह सके कि मजदूरों को सकुशल घर पहुंचाने में हम विफल रहे. जो कह सके कि नोटबन्दी मोदी सरकार का गलत निर्णय था. नहीं ना? फिर भी आप राहुल गांधी को “पप्पू” बोलते-समझते है. इसमें आपका भी कोई दोष नहीं है. दरअसल, हमारे दिमाग को हैक कर लिया गया है. हम मीडिया के जरिए सोचते है और मीडिया का “थॉट प्रोसेस” क्या है, इस पर बोलने की जरूरत ही नहीं है.
इस तस्वीर को देखिए. क्या दिखता है? राजनीति, ड्रामा या सचमुच मजदूरों की चिंता..? अब भले ये राजनीति हो, तो भी क्या मजदूर समाज को इस राजनीति की आज जरूरत नहीं है? अगर ये ड्रामा भी है तो क्या रोज-रोज टीवी पर आ कर लिखित ग्यान बांचने से बेहतर नहीं होता कि सीधे जनता से बात की जाए?
तो भैया, राजनीति प्रतीकों का खेल है. पर्सेप्शन का युद्ध है. आपको जो दिखता है या आप जो देखना चाहे, देखे. मुझे इस तस्वीर में दिखती है एक मासूमियत. एक ईमानदारी. एक बेबसी. हो सकता है राजनीतिक नौटंकी का चातुर्य बेबसी बन कर उभर गया हो. लेकिन, आपकी नजर में तो राहुल “पप्पू” है. सो, मैं इस बेबसी को उतना ही ईमानदार मान रहा हूं, जितना उन मजदूरों की आंखों में ईमानदारी है. नहीं मालूम, उन मजदूरों को राहुल गांधी से क्या उम्मीद होगी? क्या भरोसा रहा होगा? लेकिन, भरोसे का क्या है? इंसान तो भगवान क्या, इंसान पर भी इस कदर भरोसा कर लेता है कि थाली बजाने में उसे कोरोना मारक मंत्र दिखने लगता है.
वैसे मुझे व्यक्तिगत तौर पर राहुल की नीयत पर भरोसा है, क्योंकि “पप्पू” भला क्या किसी को धोखा देगा? धोखा देने के लिए विद्वान- ज्ञानवान बनना पडता है. मोदी जी की तरह क्लाउड-राडार रिलेशन की जानकारी जरूरी होती है. कर्ज को पैकेज राहत बताने की धूर्तता या कहे दु:साहस का होना जरूरी होता है.
मुझे इसलिए भी उनकी नीयत पर भरोसा है क्योंकि इस आदमी ने पिछले तीन महीने में जो-जो बातें कही हैं, वो अक्षरश: सच साबित हो रही है. राहुल ने कहा कि आर्थिक तूफान आ रहा है, केन्द्र सरकार को सचेत होना चाहिए. केन्द्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया. राहुल गान्धी ने कहा, मजदूरों को सीधे पैसे दो. केन्द्र सरकार ने शुरु में ध्यान नहीं दिया. बाद में 500 रुपये की रेवडी बांटने लगी. राहुल आज भी बोल रहे हैं कि सबके खाते में (सबसे गरीब लोगों) न्याय योजना के तहत 7.5 हजार डालो, कम से कम 5-6 महीने. सरकार म्कान नहीं रही. लेकिन, उम्मीद है, ऐसा भी होगा, जल्द ही होगा.
वैसे, इस तस्वीर को संजो कर रखने की जरूरत है. इसलिए कि आने वाले दिनों में जब भारत, इंडिया से सवाल पूछ रहा होगा, तब ये देखना और दिखाना जरूरी होगा कि कौन कहां था, किसके साथ था, किसके खिलाफ था...
शशिशेखर.
“आने वाले दिनों में जब भारत, इंडिया से सवाल पूछ रहा होगा, तब ये देखना जरूरी होगा कि कौन किसके साथ था, किसके खिलाफ था..“
2013 की बात है. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि सजा का एलान होते ही मौजूदा सांसदों/विधायकों की सदस्यता समाप्त हो जाएगी. इस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए यूपीए-2 की सरकार एक अध्यादेश ले कर आई. तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस क्लब में एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए अपनी ही सरकार के निर्णय का विरोध किया और उस अध्यादेश को फाड कर फेंकने का सुझाव दिया. नतीजा, लालू हो या कांग्रेस के ही एक सांसद, सबकी सदस्यता गई, जेल गए. लेकिन, मीडिया की नजर में, आपकी नजर में राहुल गान्धी की छवि “पप्पू” की बनी रही.
जरा सोच कर देखिए, आज भाजपा में कोई एक ऐसा कद्दावर नेता हो, जो नरेंद्र मोदी सरकार की किसी उल-जलूल नीतियों/घोषणाओं की भर्त्सना कर सकें. जो ये कह सके कि मजदूरों को सकुशल घर पहुंचाने में हम विफल रहे. जो कह सके कि नोटबन्दी मोदी सरकार का गलत निर्णय था. नहीं ना? फिर भी आप राहुल गांधी को “पप्पू” बोलते-समझते है. इसमें आपका भी कोई दोष नहीं है. दरअसल, हमारे दिमाग को हैक कर लिया गया है. हम मीडिया के जरिए सोचते है और मीडिया का “थॉट प्रोसेस” क्या है, इस पर बोलने की जरूरत ही नहीं है.
इस तस्वीर को देखिए. क्या दिखता है? राजनीति, ड्रामा या सचमुच मजदूरों की चिंता..? अब भले ये राजनीति हो, तो भी क्या मजदूर समाज को इस राजनीति की आज जरूरत नहीं है? अगर ये ड्रामा भी है तो क्या रोज-रोज टीवी पर आ कर लिखित ग्यान बांचने से बेहतर नहीं होता कि सीधे जनता से बात की जाए?
तो भैया, राजनीति प्रतीकों का खेल है. पर्सेप्शन का युद्ध है. आपको जो दिखता है या आप जो देखना चाहे, देखे. मुझे इस तस्वीर में दिखती है एक मासूमियत. एक ईमानदारी. एक बेबसी. हो सकता है राजनीतिक नौटंकी का चातुर्य बेबसी बन कर उभर गया हो. लेकिन, आपकी नजर में तो राहुल “पप्पू” है. सो, मैं इस बेबसी को उतना ही ईमानदार मान रहा हूं, जितना उन मजदूरों की आंखों में ईमानदारी है. नहीं मालूम, उन मजदूरों को राहुल गांधी से क्या उम्मीद होगी? क्या भरोसा रहा होगा? लेकिन, भरोसे का क्या है? इंसान तो भगवान क्या, इंसान पर भी इस कदर भरोसा कर लेता है कि थाली बजाने में उसे कोरोना मारक मंत्र दिखने लगता है.
वैसे मुझे व्यक्तिगत तौर पर राहुल की नीयत पर भरोसा है, क्योंकि “पप्पू” भला क्या किसी को धोखा देगा? धोखा देने के लिए विद्वान- ज्ञानवान बनना पडता है. मोदी जी की तरह क्लाउड-राडार रिलेशन की जानकारी जरूरी होती है. कर्ज को पैकेज राहत बताने की धूर्तता या कहे दु:साहस का होना जरूरी होता है.
मुझे इसलिए भी उनकी नीयत पर भरोसा है क्योंकि इस आदमी ने पिछले तीन महीने में जो-जो बातें कही हैं, वो अक्षरश: सच साबित हो रही है. राहुल ने कहा कि आर्थिक तूफान आ रहा है, केन्द्र सरकार को सचेत होना चाहिए. केन्द्र सरकार ने ध्यान नहीं दिया. राहुल गान्धी ने कहा, मजदूरों को सीधे पैसे दो. केन्द्र सरकार ने शुरु में ध्यान नहीं दिया. बाद में 500 रुपये की रेवडी बांटने लगी. राहुल आज भी बोल रहे हैं कि सबके खाते में (सबसे गरीब लोगों) न्याय योजना के तहत 7.5 हजार डालो, कम से कम 5-6 महीने. सरकार म्कान नहीं रही. लेकिन, उम्मीद है, ऐसा भी होगा, जल्द ही होगा.
वैसे, इस तस्वीर को संजो कर रखने की जरूरत है. इसलिए कि आने वाले दिनों में जब भारत, इंडिया से सवाल पूछ रहा होगा, तब ये देखना और दिखाना जरूरी होगा कि कौन कहां था, किसके साथ था, किसके खिलाफ था...
शशिशेखर.
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