जाने क्यूँ ......एक रात .....बरसों से जगी है ......
नींद उधरी सी पडी है .........
जाने कैसी तिश्नगी है की .....आंसुओं को भी प्यास लगने लगी है .......
जैसे कोई संग सा है ...फिर भी क्यूँ सब बेरंग सा है .......
शायद ....कोई अधुरा सपना है ...........
जो आधा खुद में बोया है और आधा तुझमे खोया है ......
भीगी सी कोई ख्वाहिश है ...जिसमे उमगने की टीस सुलगती है .....
पर जाने ये चाँद भी क्यूँ ...रुखा -रुखा है ......
शायद इसका भी कोई ख्वाब भूखा है .....,,,
उन्ह ......तभी तो वो रात ...बरसों से जगी है ...........
नींद...... बिखरे तारों सी उधरी पड़ी है ..........................
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